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८४ अलंकारचिन्तामणिः
[२।१६०अतातिततेषु उता बद्धा ऊतिः रक्षा यस्य सः अतातिततोतोतिः तस्य संबोधनम् अतातिततोतोते ततता विशालता प्रभुता त्रिलोकेशत्वमित्यर्थः। ते तव ततं विशालं विस्तीर्णम् उतं बन्धः ज्ञानावरणादीनां संश्लेषः। ततं च तदुतं ततोतं तत् तस्यतीति ततोतताः तस्य संबोधनं हे ततोततः ।
येयायायाययेयाय नानाननाननानन। ममाममाममामामिताततीतिततीतितः ।।१६०॥
'एकाक्षरविरचितैकपादश्लोकः । येयः प्राप्यः अयः पुण्यं यैस्ते येयायाः। अयः प्राप्तः अयः सूखं येषां ते अयायाः येयायाश्च अयायाश्च येयायायायाः। येयायायायैः येयः प्राप्यः अयः मार्गो यस्यासौ येयायायाययेयायः तस्य संबोधनं
स्वभाव है; 'इतः'- इनसे, किनसे; 'तोतृता'-ज्ञानशीलता; 'ऊतिः'---रक्षा अथवा वृद्धि, 'तोतृतोतीति'--ज्ञानशीलता-ज्ञानादिगुणोंकी वृद्धि प्राप्त करना अथवा ज्ञानशीलताको रक्षाका विज्ञान; 'तोतृतोतीतितोतृतः'-ज्ञानावरणादिसे; 'तत.'-इस कारण; 'अतातिततोतोतोते'-अपरिग्रहके कारण श्रेष्ठ महान् है । 'ततता'-विशालताप्रभुता अर्थात् त्रैलोक्यका स्वामित्व; 'ते'-तुम्हारा; 'ततोततः'-- बन्धको नष्ट करनेवाले-द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप आवरणको नष्ट करनेवाले; 'उतं'ज्ञानावरणादि कर्मों के संश्लेषको; 'तोते'--नमस्कार या पूजन करता हूँ।
'तु' का प्रयोग विशेष या अतिशय पूजाके लिए किया जाता है । Vतु गत्यर्थक सौत्रान्तिक है। सभी गत्यर्थक धातुएँ ज्ञानार्थक भी होती हैं। 'ऊतिः' / अव रक्षार्थक धातुका क्त्यन्त प्रयोग है। इसका अन्य अर्थ वृद्धि भी है। 'इतिः' यह प्रयोग/ इण् गतौका क्त्यन्त है ॥१५९३॥ एकाक्षरविरचितैकपाद चित्रका उदाहरण
हे भगवन् ! आपका यह मोक्षमार्ग उन्हीं प्राणियोंको प्राप्त हो सकता है, जो पुण्यबन्धके सम्मुख हैं या जिन्होंने पहले पुण्यबन्ध किया है। समवशरणमें आपके चार मुख दिखलाई पड़ते हैं। आपका पूर्ण केवलज्ञान संसारके समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है । यद्यपि आप ममत्वसे रहित हैं, तो भी सांसारिक अनेक बड़ो-बड़ी व्याधियोंको नष्ट कर देते हैं । हे प्रभो ! आप मेरे भी जन्म-मरण रूप रोगको नष्ट कीजिए ॥१६०३ ॥
उपर्युक्त पद्यका प्रत्येक पाद एक ही व्यंजन द्वारा निबद्ध है।
'येयः' -प्राप्य है पुण्य जिनको या जिन्हें; 'अयः'-सुख अथवा मार्ग । 'ये यायायाययेयाय' --जिन को पुण्य प्राप्त है अथवा जिन्हें सुख प्राप्त है, उन्हींको
१. विरचितैकैकपाद""क । २. मार्गस्य स्थाने प्राप्यः इति पाठः -ख ।
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