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अलंकारचिन्तामणिः एवमेकैकत्र द्वित्राणि पंचषाणि वा पद्यानि 'कृत्वाभ्यसेत् ।।
इति शिक्षानुगः सर्वरसभावविशारदः ।
शब्दाद्यशेष संप्रीतो महाकविरतोऽपरे ॥१०३।। मध्यमादयः
केचित्सौशब्द्यमिच्छन्ति केचिदर्थस्य संपदम् । केचित्समासभूयस्त्वं परे' व्यस्ता पदावलीम् ॥१०४।। मृदुबन्धार्थिनः केचित् स्फुटबन्धैषिणः परे। मध्यमाः केचिदन्येषां रुचिरन्यैव लक्ष्यते ॥१०५॥ कवित्वमातनोति यस्त्रिषष्टिपूरुषश्रितम् । त्रिषष्टिधाममण्डितं त्रिविष्टपौघमेष्यति ॥१०६॥ इत्यलंकारचिन्तामणौ कविशिक्षाप्ररूपणो नाम
प्रथमः परिच्छेदः ॥ ॥
इसी प्रकार दो-तीन या पाँच-छ: पदोंकी रचना करके काव्य-प्रणयनका अभ्यास करना चाहिए। महाकविका स्वरूप
उपर्युक्त काव्य शिक्षाका अनुकरण करनेवाला; सम्पूर्ण शृंगार, हास्यादि रस और भाव इत्यादिका विशेषज्ञ; शब्द-अर्थ इत्यादि समस्त काव्यांगोंकी जानकारीसे प्रसन्न चित्तवाला महाकवि होता है और उक्त लक्षणोंसे भिन्न लक्षणवाला मध्यम या जघन्य कवि होता है ॥१०३ ॥ मध्यमादि कवि
कोई कवि शब्दसौन्दर्य, कोई अर्थसौन्दर्य, कोई अधिक समास-युक्त पद और कोई समासरहित पदसमूहकी अभिलाषा करते हैं । १०४ ॥
कोई कवि कोमल रचनाको पसन्द करते हैं; कोई स्फुट-प्रसाद गुण विशिष्ट रचना करना चाहते है; कोई मध्यम ढंगकी रचनाकी अभिलाषा करते हैं और अन्य कवि किसी दूसरी प्रकारको ही इच्छा रखते हैं ।। १०५ ॥
__जो महाकवि त्रिषष्टि शलाकापुरुषोंसे सम्बद्ध अपनी कविताका प्रणयन करता है, वह वेसठ पटलोंसे युक्त स्वर्गको प्राप्त करता हैं । १०६ ।।
अलंकार चिन्तामणिमें कवि शिक्षा प्ररूपण नामक
प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ ।। १ ॥
१. कृत्वा कृत्वा-क । २. परि-ख ।
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