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अलंकारचिन्तामणिः
[२।४३इदं वदेति संप्रोक्ते भङ क्त्वा यत्रोत्तरं वदेत् । तद्भग्नोत्तरमाख्यातं 'काकुवाच्यैव गोपितम् ।।४३।। केभ्यो हितकरो भोस्त्वमिवामन्त्र्यतां कवे । *प्रशस्ताभ्यहितत्वाद्यः को भवानिव सज्जनः ॥४४॥
सज्ज । भोः शब्दशासन । जैत्रे जः प्रतिपत्तव्यः । शम्बरे शब्दशासने इत्यभिधानात् । नः अस्मभ्यं कविभ्यः । भग्नोत्तरजातिः ।
पृष्टं यत्प्रश्नवाक्ये स्यादादिमध्यान्तसुस्थितम् । उत्तरं त्रिविधं तत्स्यादादिमध्यान्तपूर्वकम् ।।४५।। मदितो देवलोकस्य का तीर्थकरजन्मतः। रागान्धीकृतचित्तानां चेतो व्याधिः कुतः सदा ॥४६॥ मुत् आनन्दः इतः स्मरात् । आधुत्तरजातिः।
भग्नोत्तरचित्रका लक्षण
यह कहो इस प्रकार पूछनेपर पद-विच्छेदकर उत्तर दिया जाये और काकुध्वनिसे जो गुप्त रखा जाये, उसे विद्वानोंने भग्नोत्तरचित्र कहा है ॥ ४३ ॥ उदाहरण
कौन किनके लिए हितकारी है ! हे कवि ! तुम्हारे समान किसे आमन्त्रित किया जाय ? प्रशंसनीय और पूजनीय होनेके कारण सज्जनोंके समान आप कौन हैं ? ॥४४॥
उत्तर-सज्जः-हे शब्दशासन । ज शब्दका प्रयोग जैत्र (विजयशील ) शम्बर-काम और शब्दशासनके अर्थमें होता है। ऐसा अभिधान-शब्दकोशमें कहा गया है। यह भग्नोत्तर जातिका उदाहरण है। आदि-मध्य-उत्तरजाति चित्रका लक्षण और उदाहरण
जिस प्रश्नवाक्यमें पूछा हुआ प्रश्न आदि, मध्य और अन्त में सुस्थिर हो, उसका उत्तर भी आदि, मध्य और अन्त रूप हो सकता है ॥ ४५ ॥
तीर्थंकर भगवान्के जन्म लेनेसे प्रसन्न देवलोकको क्या हुआ ? सर्वदा रागान्ध चित्तवालोंको मानसिक रोग क्यों होता है ? ॥ ४६ ॥
उत्तर-मुदितः - मुद् = आनन्द । इतः = स्मरात्~-कामदेवसे । यह आद्युत्तर जातिका उदाहरण है।
१. वाचैव कख । २. तेभ्यो ख । ३. हितकरः को भो त्वमीवा इति ख । ४. प्रशस्ताभ्यहितत्वादयः ख ।
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