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द्वितीयः परिच्छेदः श्लोकार्द्धपादपात्रं तु यत्रोत्तरमुदीर्यते। श्लोकार्द्धपादपूर्वं तदुत्तरं त्रिविधं मतम् ॥६७॥ का श्रद्धा मूढवृन्दं किमभिविधिमुखेऽर्थे 'परं किं निषेधे संपत्तिोम का किं गिरिरपि कूलिशं कोपपीडे पदं किम् । युल्लज्जामन्त्रणं किं चरति खगगणः कूत्र'चामन्यदावः कृष्णं ब्र हि च्युतांशुविधुरपि जलदेनोच्यता कोदशेन ॥६८|| कः पुमान् का च संबुद्धिः पदार्थे लेटि किं पदम् ।
आवहेः को मुनिः कीदृग् दोषमुक्तो जिनेश्वरः ॥६९।। ईक्षा-निरीक्षणं-निरीक्षण किया। इन्द्रसे भी व्यय नहीं होनेवाला धन-सुदीक्षा है । पुरु-आदितीर्थंकर ऋषभदेवने दीक्षा धारण की।
यह वाक्योत्तर जातिका उदाहरण है। श्लोकार्द्धपादपूर्व चित्रका लक्षण और उसके भेद
जिसमें केवल श्लोकका आधा पाद ही उत्तररूप प्रतीत हो, उसे श्लोकार्द्धपादपूर्व कहते हैं और इसके तीन भेद माने गये हैं ॥६७॥ उदाहरण
श्रद्धा क्या है ? मूढ-मूर्खसमूह कौन है ? सम्मुख अर्थ और निषेध अर्थमें कौन शब्द है ? आकाश तथा पर्वत के अर्थमें कौन शब्द है ? वज्र क्या है ? कोपसे पीड़ा अर्थमें कौन शब्द है ? लज्जासे युक्त आमन्त्रण क्या है ? पक्षियोंका समूह कहाँ विचरण करता है ? अमन्य दाव क्या है ? कृष्ण को क्या कहते हैं ? कैसे मेघसे चन्द्रमा भी च्युतांशु कहे जा सकते हैं ? ॥६८३॥
उत्तर--रुचिः-रुचि ही श्रद्धा है । बुद्धिहीन हो मूर्खसमूह है। सम्मुख अर्थमें 'आ' और निषेध अर्थमें 'न' अव्यय प्रयुक्त हैं। सम्पत्ति अर्थमें सम्पत्, आकाश अर्थमें नभ और पर्वत अर्थमें अग शब्द व्यवहृत हैं। वज्रके अर्थमें अपद्रव या अनार्द्र; कोपसे पोडित अवस्थामें आः; युध् वाचक शब्दका सम्बोधन रण; लज्जायुक्त आमन्त्रणमन्दोक्ष-मन्द मूर्ख, उक्ष-बैल । खे-आकाशमें पक्षिसमूह विचरण करता है। अमन्य दाव-दावानल है । अम्-कृष्णको कर्मकारकमें अम् कहते हैं। छादिनाआच्छादित करनेवाले मेघसे चन्द्रमा भी च्युतांशु-नष्टकिरण कहा जाता है।
पुरुष कोन है ? सम्बोधन-पद कौन है ? आ + / वह का लेट्में कैसा रूप होता है ? मुनि कौन है ? दोषोंसे रहित जिनेश्वर कैसा है ?॥६९॥
उत्तर-'ना' पुरुष वाचक शब्द है। 'भाव' सम्बोधन है। आवह लेटका रूप है । मुनि तथा जिनेश्वर अनिकः-विषय-वासनासे रहित निष्काम होते हैं।
१. पदं कि निषेधि-ख। २. चामन्त्यदावः-ख। ३. ब्रूहि-ख ।
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