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अलंकारचिन्तामणिः
[२।७०रुचिरध्यानसंपन्नभोगोपद्रवमारण । मन्दाक्षखेदवाञ्छादिनानाभावावहानिकः ॥७०॥ रुचिः । अधि न विद्यते धोर्यस्य तत् । आ। न । सम्पत् । नभः । अगः । अपद्रवम् अनाम् । आः । रण । मन्दोक्ष । खे । दव। अं। छादिना । ना। भाव । आवह । अनिकः निष्कामः । श्लोकोत्तरजातिः । का शास्त्रेण भवत्यनेकजनताऽऽनन्दी च कः कोकिलासेव्यं किं कुरुते च निर्गुणगणं किं किं शरत्कालगम् । संबोध्येत सुनिर्मलां धरति कः केयूरमत्त्युज्ज्वलं कीदृक्षो वद रत्नदीप इह भोः कीदृक् जिनः प्रोच्यताम् ॥७१।। धोरानन्दनमालाति सुखदो रञ्जनातिगः ।
घीः । राः । नन्दनम् । आलाति । सुख भोः शोभनाकाश । दोः बाहः ।। अञ्जनातिगः कज्जलरहितः । खण्डोत्तरजातिः ।
उपसंहार
रुचि, अध्यान, सम्पत्, नभ, अग, अपद्रव, आः, रण, मन्दोक्ष, खे, दव, अं, छादिना, ना, भाव, आवह और अनिक, उपर्युक्त प्रश्नोंके उत्तर हैं ॥७०६॥
उक्त श्लोकोत्तर जातिके उदाहरण हैं ॥७०३।।
अन्य उदाहरण
शास्त्रसे क्या होता है ? अनेक लोगोंको आनन्दप्रद क्या है ? कोयलसे सेवने योग्य क्या है ? गुणरहित मनुष्य क्या करता है ? शरत्कालिक स्वच्छ आकाशका सम्बोधन क्या है ? अत्यन्त सुन्दर केयूर ( अंगद ) को कौन धारण करता है ? रत्नदीप कैसा होता है ? तथा जिन कैसा होता है ॥७१३॥
उत्तर-धीरानन्दनमालाति सुखदो रञ्जनातिगः । शास्त्रसे धी-बुद्धि उत्पन्न होती है। जनताको आनन्दप्रद 'राः धन है। कोयलसे सेवनीय नन्दन-नन्दनवन है । गुणरहित मूर्ख 'आलाति' लोगोंको कष्ट देता है। शरत्कालिक आकाशके सम्बोधनमें सुख-शोभनाकाश शब्दका प्रयोग होता है। केयूर-अंगदको बाहु धारण करती हैं। रत्नदीप 'अञ्जनातिग:-कज्जलरहित होता है। जिनेशका चरित्र 'अञ्जनातिगःअठारह दोषोंसे रहित होता है ।
यह खण्डोत्तरजातिका उदाहरण है।
१. न विद्योतते-ख । २. रुचिः-ख । इत्यधिकोः पाठः । ३. मन्दाक्ष-क-ख । ४. कुरुते मुनिगुणगणं-क। ५. केयूरमत्युज्ज्वलं-ख। ६. भो-क। ७. आलातिः -ख । ८. भोः स्थाने भो कग्रन्थे सर्वत्र ।
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