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द्वितीयः परिच्छेदः
बाह्यान्तराद्वितये हि यत्र यं कंचिदर्थं स्फुटमानिगद्य ।
विवक्षितार्थः सुविगोपितोऽसौ प्रहेलिका सा द्विविधाऽर्थशब्दात् ॥१२५॥ नाभेरभिमतो राज्ञस्त्वयि रक्तो न कामुकः ।
-१२७ ]
न कुतोऽप्यधरः कान्त्या यः सदीजो घरः स कः ॥१२६॥
१
"अधरः । सदौजोधरः । सततं तेजोधरः सामर्थ्याल्लभ्योऽधरः अर्थप्रहेलिका |
भोः केतकादिवर्णेन संध्या दिसजुषाऽमुना ।
शरीरमध्यवर्णेन त्वं सिंहमुपलक्षय ॥१२७॥
केतक कुन्दनन्द्यावर्तादिवर्णेन । पक्षे केतकशब्दस्यादिवर्णेन के इत्यक्षरेण संध्यादिसजुषा रागेण सहितः सजुट् । संध्या आदिर्यस्यासौ संध्यादिः " संध्यादिरेव सजुट् संध्यादिसजुट् तेन । पक्षे संध्याशब्दादिवर्णं सकारं जुषते
पुत्र हैं । 'विजया' - - अजित जिनकी माता है, उसके पुत्रको 'वैजयेयः' माना जायेगा । आशय यह है कि आदितीर्थंकरके बाद अजितनाथ तीर्थंकर हुए । यह त्रस्त - त्रिस्समस्त जातिका उदाहरण है ।
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प्रहेलिकाका स्वरूप और भेद
जिस रचना विशेष में बाह्य और आभ्यन्तरिक दो प्रकारके अर्थ • हों; उनमें जिस किसी अर्थको स्पष्ट कहकर विवक्षित अर्थको अत्यन्त गुप्त रखा जाये, उसको प्रहेलिका कहते हैं । शब्द और अर्थके भेदसे प्रहेलिकाएँ दो प्रकारकी होती हैं ।। १२५३ ॥
अर्थ प्रहेलिकाका उदाहरण -
भी महाराज नाभिराजको अत्यन्त प्रिय है, नहीं है और कान्ति सदा तेजस्वी रहता है ।।
वह कौन पदार्थ है, जो आपमें रक्त - आसक्त है और आसक्त होनेपर कामुक - विषयी भी नहीं है, नीच भी १२६३ ॥
उत्तर--अधरः — नीचेका ओठ ही है, वह रक्त लाल वर्णका है, महाराज नाभिराजको प्रिय है, कामी भी नहीं है, शरीरके उच्च भागपर रहने के कारण नीच भी नहीं है और कान्ति से सदा तेजस्वी रहता है ।
शब्दप्रहेलिकाका उदाहरण
केतकी आदि पुष्पोंके वर्णसे, सन्ध्या आदिके वर्णसे एवं शरीरके मध्यवर्ती वसे तुम अपने पुत्रको सिंह समझो || १२७३ ॥
केतको, कुन्द और नन्द्यावर्तादि वर्णसे, केतकी शब्दका आदिवर्ण 'के'; सन्ध्याका
१. अधर : नीचः इति - । २. संध्यादिरिव -क ।
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