________________
अलंकारचिन्तामणिः
[२११२४वै अव्ययं स्फूटार्थे च। जये। अयः न या श्रीः यस्य। या स्त्रियां पानमजोः शोभालक्ष्म्योश्च निमितौ। वा रतिपतिः कामो वदति किमिति पुंस्त्रियौ पुरुषना? 'प्रशस्यौ प्रधाने बभूवतुः। इत्युक्तवते कामाय स्तुतिकार उत्तरं ददाति । हे ए। अजये विष्णुकमले 'अजो विष्णुः या कमला । यः यरलवान्तस्था इति । वैजये। उ अ ए रुद्रब्रह्मकृष्णाः ॥ उश्च अश्च एश्च वै इति सिद्धम् ।। वायां त्रयाणां जयोऽभिभवनमर्थात्तेषां त्यजनं त्यागस्तस्मिन् सति । अयो लोहं । वैजयेयः वीनां पक्षिणां जयो विजयः विजयस्येयं वैजयी ताम् ईं रमां यातीति वैजयेयः गरुडः । 'वैजयेयः। विजया पार्वती "शिवेत्यभिधानात् । विजया अजितजिनमाता तस्या अपत्यम् ॥ त्रिय॑स्तत्रिःसमस्तजातिः । इत्यादिविशेषो बहुधा चिन्त्यः । होती है ? गरुड कैसा होता है ? कात्तिकेय कैसे हैं ? आदि तीर्थकरके पश्चात् कौन तीर्थकर हुआ? ॥ १२४३॥
उत्तर-वै जये यः । स्पष्टार्थक वर्ण वै है। जये-विजयमें रमाका निवास है। अयः-अ-नहीं है, या-लक्ष्मी पासमें जिसके-लक्ष्मी जिसके पास नहीं है, वह दरिद्र होता है ( पान, मंजरी, शोभा, लक्ष्मी और निर्मिति अर्थमें या शब्द आता है )। काम कहता है-कौनसे स्त्री-पुरुष प्रधान होते हैं ? इस प्रकारका प्रश्न करनेपर स्तुतिकार उत्तर देते हैं कि, स्त्री-पुरुषोंमें 'अजो-विष्णुः; या-कमला' विष्णु और लक्ष्मी प्रधान हैं और ये ही नर-नारियोंमें प्रशंस्य हैं। अन्तःस्थोंमें 'यः'-य वर्ण प्रधान है । 'वैजये'-उ+ अ + ए--उ अव्यय ताप और ईशान अर्थमें; 'अकार'ब्रह्मा, विष्णु, ईश, कमल, आंगन और रण अर्थमें तथा 'ए' कार-तेज, जल, रात्रि, हर्म्य, उदर और हरि अर्थमें प्रयुक्त होता है। अतः उ अ ए--रुद्र, ब्रह्मा और कृष्ण, इन तीनोंके; 'जयोऽभिभवनम्' त्यागसे शिवसुख होता है। तात्पर्य यह है कि मोक्षसुख ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीनों देवताओंके त्यागसे प्राप्त होता है। अर्थात् मोक्षसुख उक्त तीनों देवोंके आश्रयसे भिन्न है। 'अयो लोहं' फाल लोहमय प्रतीत होती है । 'वैजये यः'--वीनां पक्षिणां जयो--पक्षियोंके विजयको विजय कहते हैं, विजय सम्बन्धी वस्तुको वैजयी कहा जाता है। उसको ईम्-रमाको जो प्राप्त करता है, उसे वैजयेय गरुड कहा जाता है। अर्थात् पक्षी जिसका जय-गान करते हैं और जो स्वयं लक्ष्मीवान् है, वह गरुड है। 'विजया'-- पार्वतीका नाम और उनके पुत्रको वैजयेय कहा जाता है। कार्तिकेय पार्वतीके
१. प्रशस्ये -क । २. अजश्च या च अजये। अजा विष्णुहरच्छागा इत्यमरः । प्रथमप्रती पादभागे। ३. उतापेऽव्ययमीशाने ।। अकारो ब्रह्मविष्ण्वीशकमलेष्वङ्गणे रणे ॥ एकास्तेजासि जले रात्री हर्योदरे हरी। प्रथमप्रती पादभागे। ४. विजयाया अपत्यं वैजयेयो गुहः प्रथमप्रतौ पादभागे । ५. खप्रती शिव इति शब्दो नास्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org