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प्रथमः परिच्छेदः मगणादीनां भूरित्यादयोऽधिदेवता:बिन्दुसौ पदादी न कदाचन जो 'पुनः । भषान्तावपि विद्यते काव्यादी न कदाचन ॥८७॥ आभ्यां संप्रीतिरीभ्यामुद्भवेदूभ्यां धनं पुनः । ऋलचतुष्टयतोऽकीतिरेचः सौख्यकरा स्मृताः ॥८॥
तगणके देवता आकाश, जगणके सूर्य, रगणके अग्नि और सगणके देवता पवन हैं । ये चारों अशुभ हैं, अतः काव्यारम्भमें इनका प्रयोग वर्जित है । तगणको मध्यस्थअर्थात् सामान्य माना गया है ॥ ८६ ।। गणदेवता और फलबोधक चक्र
नाम
स्वरूप
देवता
फल
शुभाशुभत्व
यगण
155
जल
आयु
शुभ
मगण
555
पृथ्वी
लक्ष्मी
शुभ
तगण
55।
आकाश
शून्य
अशुभ
रगण
s।
अग्नि
दाह
अशुभ
जगण
।
।
सूर्य
अशुभ
भगण
5॥
चन्द्रमा
यश
शुभ
नगण
स्वर्ग
सुख
शुभ
सगण
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॥ वायु विदेश
अशुभ पदारम्ममें त्याज्य वर्ण
पदके प्रारम्भमें विन्दु, विसर्ग, ज और न का व्यवहार नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार काव्यके प्रारम्भमें भ और ष वर्णका प्रयोग सर्वथा त्याज्य है ॥ ८७ ॥ काव्य के प्रारम्ममें स्वरवर्णो के प्रयोगका फल
काव्यके प्रारम्भमें 'अ' या 'आ' के होनेसे अत्यन्त प्रसन्नता; इ या ई के होनेसे आनन्द; उ या ऊ के होनेसे धनलाभ; ऋ, ऋ, ल ल के होनेसे अपयश एवं ए, ऐ ओ, औ के रहनेसे कवि, नायक तथा पाठकको महान् सुख होता है ।। ८८ ॥ १. ङओ-ख । २. भवान्तावपि-ख। ३. भ्यामुद्भवेदूद्भयाम्- ख ।
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