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________________ -८८ ] प्रथमः परिच्छेदः मगणादीनां भूरित्यादयोऽधिदेवता:बिन्दुसौ पदादी न कदाचन जो 'पुनः । भषान्तावपि विद्यते काव्यादी न कदाचन ॥८७॥ आभ्यां संप्रीतिरीभ्यामुद्भवेदूभ्यां धनं पुनः । ऋलचतुष्टयतोऽकीतिरेचः सौख्यकरा स्मृताः ॥८॥ तगणके देवता आकाश, जगणके सूर्य, रगणके अग्नि और सगणके देवता पवन हैं । ये चारों अशुभ हैं, अतः काव्यारम्भमें इनका प्रयोग वर्जित है । तगणको मध्यस्थअर्थात् सामान्य माना गया है ॥ ८६ ।। गणदेवता और फलबोधक चक्र नाम स्वरूप देवता फल शुभाशुभत्व यगण 155 जल आयु शुभ मगण 555 पृथ्वी लक्ष्मी शुभ तगण 55। आकाश शून्य अशुभ रगण s। अग्नि दाह अशुभ जगण । । सूर्य अशुभ भगण 5॥ चन्द्रमा यश शुभ नगण स्वर्ग सुख शुभ सगण - -- ॥ वायु विदेश अशुभ पदारम्ममें त्याज्य वर्ण पदके प्रारम्भमें विन्दु, विसर्ग, ज और न का व्यवहार नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार काव्यके प्रारम्भमें भ और ष वर्णका प्रयोग सर्वथा त्याज्य है ॥ ८७ ॥ काव्य के प्रारम्ममें स्वरवर्णो के प्रयोगका फल काव्यके प्रारम्भमें 'अ' या 'आ' के होनेसे अत्यन्त प्रसन्नता; इ या ई के होनेसे आनन्द; उ या ऊ के होनेसे धनलाभ; ऋ, ऋ, ल ल के होनेसे अपयश एवं ए, ऐ ओ, औ के रहनेसे कवि, नायक तथा पाठकको महान् सुख होता है ।। ८८ ॥ १. ङओ-ख । २. भवान्तावपि-ख। ३. भ्यामुद्भवेदूद्भयाम्- ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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