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-८३ ] प्रथमः परिच्छेदः
१९ त्रिवलिशोभितः अलं वादिपतिविबभावित्यत्रापि संबध्यतेऽस्य विपरिणमनमिदम् । विषमपदानामेवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् ।
उपमाश्लेषस्योदाहरणम्जडात्मा स्यात्सदाक्षोभी समुद्रो वा पुमान् लोके ।।८२३॥ चित्रस्योदाहरणम्इलापाला सुलातीला कलामालाकुलामिलाम् ॥८३॥
गोमूत्रिकाबन्धः। अष्टदलपद्म च । भूपालनशीला ईडा जिनस्तुतिः । इला इरा वाक् दिव्यध्वनिरिति वा । कलादियुतामिलां भुवं वा वाचं च ददाति । इलापाला इला, ( ईला वा ) कलामालाकुलाम्, इलां सुलातीत्यन्वयः ।
तीसरे चरण में 'मडम्ब' और चौथे चरणमें 'मलम्ब' है, इस प्रकार ड और ल का भेद होनेपर भी यमकालंकार बन जाता है। इसी पंक्ति में 'मडम्ब' और 'मलम्ब' में भी ब
और व का अभेद मानकर यमकयोजना की गयी है ।। ८२ ॥ उपमा और श्लेषका उदाहरण
समुद्रपक्षमें-'जलम् आत्मा यस्य सः'-'जलात्मा'-जल सहित और पुरुष पक्षमें—'जडः आत्मा यस्य स जडात्मा'-जिसको आत्मा जड़ है अर्थात् मूर्ख । मूर्ख व्यक्ति सदा क्षुब्ध रहता है और समुद्र भी सदा क्षुब्ध-तरंगयुक्त रहता है ।
यहां ड और ल में अभेद मानकर श्लेष द्वारा यमकको योजना की गयी है। वस्तुतः प्रत्यक्षमें यहाँ श्लेष ही है, पर व्याख्यानुसार यमक भी घटित हो जाता है।
___ उपमालङ्कारमें यमक घटित करनेके लिए 'वा' का 'वत्' लेना होगा और यह अर्थ निष्पन्न होगा
समुद्रके समान जडात्मा व्यक्ति सदा क्षुब्ध-चंचल रहता है ।। ८२३ ॥ चित्रालंकारके उदाहरण
र और ल तथा ड और ल का अभेद बताया गया है। ड और ल के अभेद सम्बन्धी उदाहरण में 'सुलातीला के स्थानमें 'सुलातीडा' पाठ मानना पड़ता है। ड और ल में अभेद होनेके कारण गोमूत्रिका और अष्टदल बन्ध में अन्तर नहीं होता।
'इलापाला--भूपालनशीला ईडा-जिनस्तुतिः-कलामालाकुलामिराम् कलामालया आकुलाम् इराम् दिव्यवाचम् सुलाति सुददाति' इस व्याख्यामें 'कलामालाकूलामिराम्' में र और ल में अभेद होनेसे चित्रालंकार बनता है । 'कलामालाकुलामिराम' यह (विसर्गानुस्वारी चित्राय नो मतो ) का उदाहरण है। यतः अनुस्वारकी विशेषता रहते हुए भी अलंकार स्वीकृत है । ल और र के दृष्टान्त में-'इलापाला सुलातीरा
१. विवरणमिदम्-क-ख । २. क-ख नास्ति । ३. क-ख नास्ति ।
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