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[ १.७९
अलंकारचिन्तामणिः रवं नाटयं मयूराणां वर्षास्वेव विवर्णयेत् । नियमस्य विशेषोऽन्यः कश्चिदत्र प्रकाश्यते ।।७९॥ शुभ्रमिन्द्रद्विपं ब्रूयात्त्रीणि सप्त चतुर्दश । भुवनानि चतस्रोऽष्टौ दश वा ककुभो मताः ॥८०॥ वबौ डली रलौ चैते यमके श्लेषचित्रयोः । न भिद्यन्ते विसर्गानुस्वारौ चित्राय न मतौ ॥८॥ यमकस्योदाहरणम्वलीद्धो भरतश्चक्री बलीशो विबभौ भवि । मडम्भादिकमायत्नमलम्बादिपतिः पुरुः ॥८२॥
यद्यपि अन्य ऋतुओं में भी मयूर बोलते और नृत्य करते हैं, तो भी वर्षा ऋतुमें ही उनके बोलने और नृत्य करनेका उल्लेख करना; अन्य ऋतुओंमें नहीं; नियमेन उल्लेखकी दूसरी विलक्षणता कही जायेगी ॥ ७९ ॥
ऐरावत हाथीको श्वेत वणित करना, भुवन तीन, सात या चौदह मानना; दिशाएँ चार, आठ या दस मानना; सद्वस्तुका नियमेन उल्लेखरूप कविसमय है ।। ८० ॥ यमक, श्लेष और चित्रकाव्य सम्बन्धी व्यवस्था
__ यमक, श्लेषालंकार और चित्रकाव्यमें व ब, ड ल और र ल वर्गों की परस्परमें एकता मानी जाती है, भिन्नता नहीं। चित्रकाव्यमें विसर्ग और अनुस्वार परिगणित नहीं होते हैं । अर्थात् अनुस्वार और विसर्गकी अधिकता होनेपर भी चित्रालंकार नष्ट नहीं होता ॥ ८१॥ यमकका उदाहरण
बलि अर्थात् नाभिके नीचे स्थित रेखा-विशेषोंसे शोभित और बली-बलवान् मनुष्योंका स्वामी भरतचक्रवर्ती पृथिवीपर सुशोभित हुआ था। यहां 'वलीद्धः'-'वलभिः इद्धः' और 'बलीशः'--'बलिनां बलवतामीशः' इन दोनों पदोंमें व तथा ब में भेद होते हुए भी यमकालंकार बनता है; क्योंकि 'व' और 'ब' में यमकमें भेद नहीं लिया जाता। दूसरी पंक्ति में 'ड' और 'ल' के अभेदका दृष्टान्त दिया गया है । 'वादिपतिः'-'वादिनां पतिः'- वादियों के स्वामी गुरु-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवने; 'आपन्नं'-प्राप्त हुए, 'मडम्ब'-खेट, खर्वट, मडम्ब, पत्तन आदिमें 'अलम्'-अत्यधिक विहार किया था। 'विजहार' क्रियाकी योजना ऊपरसे करनी चाहिए। अथवा "आपन्नं प्राप्तं मडम्बं विहरन् वादिपतिः पुरुः विबभौ” पाठमें 'विहरन्’ क्रियाकी योजना करनी पड़ती है ।
१. मडम्बादिकमापन्ना मडम्बादिपतिः-ख । २. मडम्बाधिपति:-क; मलम्बादिपतिः-ख ।
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