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अलंकारचिन्तामणि साधुशब्दार्थसन्दर्भ गुणालंकारभूषितम् ।।
स्फुटरीतिरसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये ॥' अर्थात् यश प्राप्तिके लिए कविको ऐसे काव्यकी रचना करनी चाहिए, जो साधु शब्द और अर्थसे परिपूर्ण हो। इतना ही नहीं उस काव्यमें प्रसादादिगुण, उपमादि अलंकार, वैदर्भी आदि रीतियाँ, और श्रृंगार आदि नव रसोंको भी स्पष्ट रूपसे विद्यमान रहना चाहिए ।
इस परिभाषाकी तुलना अलंकारचिन्तामणिके साथ करनेपर स्पष्ट प्रतीत होता है कि अलंकारचिन्तामणिमें शब्दान्तरके साथ यही प्रतिपादित है ।
काव्य उत्पत्तिके हेतु भी दोनों ग्रन्थोंमें प्रायः तुल्य हैं । वाग्भटालंकारमें प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यासको काव्योत्पत्तिका हेतु माना है । लिखा है
प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् ।
भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्याद्यकविसंकथा ॥ समस्यापूर्तिको दोनों ही ग्रन्थोंमें काव्य माना गया है तथा इसकी परिभाषाएँ और समस्यापूर्ति करनेके विधिनिषेधात्मक नियम भी वर्णित हैं। कविशिक्षाका कथन वाग्भटालंकारमें भी आया है, पर यह अत्यन्त संक्षिप्त है। अलंकारचिन्तामणिमें कविशिक्षाका विस्तार पूर्वक निरूपण आया है। काव्य-भाषाओंकी व्यवस्था, दोनों ही ग्रन्थोंमें तुल्य है। दोष-प्रकरण, अलंकारचिन्तामणिका वाग्भटालंकारकी अपेक्षा विशेष विस्तृत है। वाग्भटालंकारमें आठ प्रकारके पद-दोष, नौ प्रकारके वाक्यदोष, आये हैं। अलंकारचिन्तामणिमें पद-दोष, वाक्यदोष और अर्थदोषोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
वाग्भटालंकारमें भामह और दण्डीके समान उदारता, समता, कान्ति, अर्थव्यक्ति, प्रसन्नता, समाधि, श्लेष, ओज, माधुर्य और सुकुमारता ये दस गुण वणित हैं। पर अलंकारचिन्तामणिमें चौबीस गुणोंका निरूपण किया गया है । अतः वाग्भटालंकारकी अपेक्षा अलंकारचिन्तामणिका गुण-दोष प्रकरण पर्याप्त समृद्ध है। वाग्भटालंकारमें चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक, इन चार शब्दालंकारोंका कथन आया है जो अलंकारचिन्तामणिके शतांशके तुल्य भी नहीं है । अलंकारचिन्तामणिमें शब्दालंकारोंका बहुत ही स्पष्ट और विस्तृत निरूपण आया है। वाग्भटालंकारमें पैंतीस अर्थालंकारोंके स्वरूप आये हैं। वाग्भटालंकारका रस-प्रकरण भी अलंकारचिन्तामणिकी अपेक्षा बहुत संक्षिप्त है। दोनों ही ग्रन्थोंमें शृंगार रसके सन्दर्भमें नायक-नायिकाओंके भेद भी आये हैं। इस प्रकार वाग्भटालंकार और अलंकारचिन्तामणि इन दोनों ग्रन्थोंकी विषयवस्तु प्रायः तुल्य है। जहाँ अलंकारचिन्तामणि में तीन रीतियां वर्णित हैं वहाँ वाग्भटालंकारमें गौडी और वैदर्भी ये दो रोतियाँ ही निरूपित हैं। ध्वनि और नाटकके १. वाग्भटालं कार, चौखम्भा संस्करण, १६५७, १।२ । २. वही, १६३ ।
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