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अलंकारचिन्तामणिः
[११२ गुरूणामन्तिके नित्यं काव्ये यो रचनापरः।
अभ्यासो भण्यते सोऽयं तत्कामः कश्चिदुच्यते ॥१२॥ जनानां दृष्टव्यापारैश्छन्दोऽभ्यासो यथा
अम्भोभिः संभूतः कुम्भः शोभते पश्य भो सखे। शुभः शुभ्रपटो भाति सितिमानं प्रपश्य भोः ॥१३॥ वधू रमेव भातीयं नरो भाति स्मरो यथा । उखा भात्यन्नपूर्णेयं सखा भाति विधूपमः॥१४॥ शय्योत्थितः कृतस्नानो वराक्षतसमन्वितः।
गत्वा देवार्चनं कृत्वा श्रुत्वा शास्त्रं गृहं गतः ॥१५॥ एवमत्रैव छन्दांस्येभ्यसेत् ॥ मनश्छन्दोऽन्तरे यथा
सा भासते चन्द्रमसः कलेयं, जिनेशिनो वागिव मन्मनोज्ञा ।
प्रत्यर्थिपृथ्वीभृदनेकदन्तिकण्ठीरवोऽभूद्भरतेशचक्रो ॥१६॥ अभ्यासका स्वरूप और उदाहरण
प्रतिदिन काव्यज्ञ गुरुओंके समीपमें रहकर काव्यरचना करनेकी साधना करना अभ्यास कहलाता है। काव्यरचना सम्बन्धी कार्यविशेषमें संलग्न या प्रवृत्त रहना अभ्यासके अन्तर्गत है ॥१२॥
मनुष्योंके देखे हुए कार्यकलापसे छन्दका अभ्यास विना किसी अर्थविशेषके किया जा सकता है । यथा--
हे मित्र, जलसे अच्छी तरह भरा हुआ घड़ा सुशोभित हो रहा है, इसे देखो। पतला स्वच्छ वस्त्र चमक रहा है, हे मित्र ! इसकी उज्ज्वलताको ठीक तरहसे देखो ॥१३॥
यह वधू लक्ष्मीके समान शोभित हो रही है और यह मनुष्य कामदेवके समान प्रतीत हो रहा है। अन्नसे भरी हुई बटुली शोभा पा रही है। चन्द्रमाके समान मित्र शोभित हो रहा है ॥१४॥
शय्यासे उठा हुआ मानव स्नान कर सुन्दर अक्षतोंसे युक्त पात्र लेकर देवपूजा सम्पन्न कर और शास्त्रोंका श्रवण कर घर आ गया ।।१५।।
इस प्रकार उपर्युक्त विधियोंसे अर्थका विशेष विचार किये बिना केवल छन्दोंका अभ्यास करना चाहिए।
यह वह चन्द्रमाको कला मेरे मनको सुन्दर प्रतीत होनेवाली जिन भगवान्को वाणीके समान सुशोभित हो रही है । भरतचक्रवर्ती शत्रुराजाओंके असह्य हाथियोंके लिए सिंहके समान मानमर्दक हुआ ॥१६॥ १. तत्क्रमः-क । २. छन्दस्यम्यसेत्-क । ३. पुनश्छन्दोऽन्तरे-क ।
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