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प्रथमः परिच्छेदः
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चादयो न प्रयोक्तव्या विच्छेदात्परतो यथा । नमोजिनाय शास्त्राय कुकर्मपरिहारिणे ॥ १७॥ धातूनामविभक्तीनां क्वचिद्भेदे यतिच्युतिः । मुक्ताक्षरपरत्वेऽपि श्लथोच्चार्याः क्वचिद्यथा || १८ || जिनेशपदयुगं वन्दे भक्तिभरसन्नैतः । समस्ताधविनाशं स्वामिनं धर्मोपदेशिनम् ॥ १९ ॥ मुनये सर्वविद्येशाय नमो धर्मशालिने । सुरासुराच्यं श्रीशाय प्रायः सर्वं न तद्भवेत् ॥ २०॥ विकस्वरोर्पेसर्गेण विच्छेदः श्रुतिसौख्यकृत् । यथाऽर्हत्पदयुग्मं प्रणमामि सुरपूजितम् ||२१||
'च' अव्ययकी व्यवस्था
विच्छेद हो जानेके अनन्तर 'च' आदि अव्ययोंका प्रयोग नहीं करना चाहिए । जैसे— कुकर्म – अशुभ कर्मोंको दूर करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् और जिनवाणीको नमस्कार है । इस पद्य में 'शास्त्राय' के पश्चात् 'च' प्रयोग किया जाना चाहिए; किन्तु 'विच्छेदात् परतो' नियमके अनुसार 'च' का प्रयोग नहीं हुआ । अतएव 'जिनाय शास्त्राय ' का अर्थ जिनप्रणीत शास्त्र भी सम्भव है ॥ १७ ॥
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यतिच्युति और इलथ - उच्चारण व्यवस्था और उदाहरणअविभक्ति धातुओं के भेद - मध्यमें कहीं-कहीं यतिच्युति दोष होता है । कहीं संयुक्ताक्षरके परमें रहनेपर भी उच्चारणको शिथिलता रहती है अर्थात् यतिभंग होता है ॥ १८ ॥
भक्ति के आधिक्य से विनम्र मैं सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाले, धर्मोपदेशक भगवान् जिनेन्द्रके दोनों चरणोंकी वन्दना करता हूँ ।
इस पद्य में 'वन्दे' इस च्युति नामक दोष है और इस उच्चारण किया जाता है, अतः
क्रियापदके मध्य में 'वं' पर यति है, अतः यहाँ यतिपद्यके तृतीय चरण में 'शं' 'स्वा' पर शिथिलतापूर्वक उच्चारण- शैथिल्य यहाँ पर है ॥ १९ ॥
देव और दानवोंसे पूज्य, अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीके अधिपति, धर्मनिष्ठ और समस्त विद्याओं के स्वामी मुनिराजको नमस्कार है । प्रायः सब कुछ वह नहीं हो सकता । इस पद्य में प्रथम चरण में 'विद्येशाय' पद में 'शा' वर्णपर प्रथम चरणकी समाप्ति होने से 'यतिच्युति' तथा 'सुरासुरार्च्य' पदमें संयुक्ताक्षर रहनेसे इलथोच्चारण है ||२०|| उपसर्गविच्छेदकी व्यवस्था
प्रादि उपसर्गका विच्छेद कर्णसुखद होता है । जैसे देवताओंसे पूजित जिनेश्वर
१. शास्त्राय च कर्मपरिहारिणे - क । स्वरोपसर्गेण -क ।
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२. युग्मं क ।
३. भरतसन्मतः - क । ४. एक
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