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प्रस्तावना
भोजका सरस्वतीकण्ठाभरण एवं अलंकारचिन्तामणि
भोज के सरस्वतीकण्ठाभरणमें ध्वनि और दृश्य काव्यके विषयको छोड़कर काव्यके रस, अलंकारादि सभी विषयोंका विस्तृत निरूपण आया है। ग्रन्थ पाँच परिच्छेदोंमें विभक्त है। प्रयम परिच्छेद दोष-गुण विवेचन नामक है। इसमें पदके सोलह, वाक्यके सोलह, वाक्यार्थ के सोलह दोष निरू पित हैं। पुनः शब्दके चौबीस तथा अर्थके चौबीस गुण भी प्रतिपादित हुए हैं। द्वितीय परिच्छेदमें चौबीस शब्दालंकारोंका स्वरूप विवेचन आया है। तृतीय परिच्छेदमें चौबीस अर्थालंकार और चतुर्थ परिच्छेदमें चौबीस उभयालंकारोंका स्वरूप प्रतिपादित है। पंचम परिच्छेदमें रस, भाव और नायक-नायिकादि भेद निरूपित हैं ।
___ सरस्वतीकण्ठाभरण में शब्दालंकारोंका प्रकरण बहुत विस्तृत है। इसमें छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, गुम्फना, वाकोवाक्य आदि चौबीस शब्दालंकार प्रतिपादित हैं। अलंकारोंका वर्गीकरण भी इस ग्रन्यका मौलिक है। अर्थालंकारों के अन्तर्गत जैमिनिके षट्प्रमाणोंका निर्देश अलंकारके रूपमें इस ग्रन्थमें आया है । वैदर्भी आदि रीतियोंको शब्दालंकारों के अन्तर्गत रखा गया है। इस प्रकार सरस्वतीकण्ठाभरणका वर्ण्य-विषय अलंकारचिन्तामणिके समान ही निबद्ध हुआ है ।
___तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर अवगत होता है कि सरस्वतीकण्ठाभरण में सोलह पद-दोष वर्णित हैं, पर अलंकारचिन्तामणि में सत्रह पद-दोषोंका स्वरूप विश्लेषण आया है। इन दोषोंमें दोनों ग्रन्थोंमें नेयार्थ, अपुष्टार्थ, निरर्थ, अन्यार्थ, गढ़पदपूर्वार्थ, विरुद्धाशय, ग्राम्य, क्लिष्ट, संशय और अप्रतीति तो समान रूपमें वर्णित हैं । अलंकारचिन्तामणिमें अयुक्त, अश्लील, च्युतसंस्कार, परुष, विमृष्टकरणीयांश और अयोजक नये रूपमें विवेचित हैं । पददोषोंकी तुलना करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ग्रन्थोंका लक्ष्य प्रायः तुल्य है। अलंकारचिन्तामणि में दोषकी परिभाषा अंकित की गयी है पर सरस्वतोकण्ठाभरण में दोषको परिभाषा नहीं आयी है ।
___ सरस्वतीकण्ठाभरणमें सोलह वाक्यदोष प्रतिपादित हैं। पर अलंकारचिन्तामणिमें चौबीस वाक्यदोषोंका कथन आया है। इन दोषोंमें शब्दच्युत, क्रमच्युत, सन्धिच्युत, पुनरुक्ति, व्याकीर्ण, वाक्याकीर्ण, भिन्नलिंग, भिन्नवचन, न्यूनपद, अधिकपद, छन्दश्च्युत, यतिच्युत दोष तो समान हैं। इनके लक्षण भी प्रायः तुल्य हैं। पर शेष वाक्यदोष अलंकारचिन्तामणिमें विशिष्ट हैं। अजितसेनने रीतिच्युत, क्रमच्युत, सम्बन्धच्युत, अर्थच्युत, विसर्गलुप्त, अस्थिति-समास, सुवाक्यगर्भित, पतत्प्रोत्कृष्टता, उपमाधिक, समाप्त और अपूर्ण दोषोंके लक्षण अधिक लिखे हैं । संख्या अधिक होनेके साथ दोषोंका वैज्ञानिक कथन भी आया है ।
सरस्वतीकण्ठाभरणमें सोलह वाक्यार्थ दोष आये हैं, पर अलंकारचिन्तामणिमें अठारह अर्थदोषोंका स्वरूप प्रतिपादित है। इनमें एकार्थ, अपार्थ, परुष, अलंकारहीनता,
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