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अलंकारचिन्तामणि
है। राजशेखरने समालोचकोंके चार भेद बतलाये हैं-१. अरोचकी २. सतृणाभ्यवहारी ३. मत्सरी और ४. तत्त्वाभिनिवेशी । अरोचकीको कोई भी रचना अच्छी नहीं लगती। जिनमें गुण-दोष विवेचनकी क्षमता नहीं होती वे सतृणाभ्यवहारी कहे जाते हैं । मत्सरीके लिए तो उत्तमोत्तम रचना भी दूषित प्रतीत होती है। ऐसे समालोचक विरले ही होते हैं जो निष्पक्ष भावसे दूसरोंकी रचनाओंपर विचार प्रकट करते हैं। इस श्रेणीके आलोचक तत्त्वाभिनिवेशी कहे जाते हैं । पंचम अध्यायके आरम्भमें प्रतिभा और व्युत्पत्तिकी सूक्ष्म मीमांसा की गयी है । आगे चलकर तीन प्रकारके कवि बताये गये हैं। शास्त्रकवि, काव्यकवि और उभयकवि । शास्त्रकवि तीन प्रकारके होते हैं और काव्यकवि आठ प्रकार के । नामानुसार ही इनका स्वरूप स्पष्ट होता है ।
१. रचनाकवि। २. शब्दकवि । ३. अर्थकवि । ४. अलंकारकवि । ५. उक्तिकवि। ६. रसकवि। ७. मार्गकवि । ८. शास्त्रार्थ कवि ।
इस अध्यायका अन्तिम प्रकरण पाक प्रकरण है। पाकके सम्बन्धमें मीमांसा करते हुए इन्होंने अनेक आचार्योंके मतोंकी समीक्षा की है। राजशेखरने नौ प्रकारके काव्यपाक माने हैं। षष्ठ अध्यायमें पदों और वाक्योंकी व्याख्या, उनके लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं। स्थूल रूपसे पदके पाँच और वाक्यके दस भेद बतलाये हैं । वाक्यके व्यापार अभिधाके तीन भेद हैं। इसी अध्यायमें काव्यका लक्षण भी दिया गया है तथा काव्यकी उपादेयता और अनुपादेयतापर भी विचार किया गया है। सप्तम अध्यायमें तीन प्रकारके वाक्य और काकुका विशिष्ट वर्णन किया है। अष्टम अध्यायमें काव्यार्थके स्रोतोंका वर्णन करते हुए मुख्य रूपसे श्रुति, स्मृति, इतिहास, दर्शन, अर्थशास्त्र, धनुर्वेद और कामशास्त्र आदि बारह स्रोत बतलाये गये हैं। नवम अध्यायमें अनेक विषयोंकी सूक्ष्म आलोचना करते हुए अर्थकी व्यापकता और उसके अवान्तर सूक्ष्मतम विषयोंकी दार्शनिक एवं वैज्ञानिक मीमांसा की गयी है। काव्यरचनामें सरसता और नीरसता कविके शब्दों द्वारा होती है अर्थ द्वारा नहीं। कवि अपनी अलौकिक शक्ति द्वारा कठोर और नीरस विषयको भी कोमल एवं कमनीय बना देता है। इसके अनन्तर मुक्तक और प्रबन्ध भेदसे दो प्रकारके काव्यार्थ बताये हैं।
दशम अध्यायमें कविचर्या और राजचर्याका वर्णन आया है। कविताकी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और पैशाची भाषाएँ प्रधान मानी गयी हैं। कवियोंके रहन-सहन, आचरण-व्यवहार, लेखन-सामग्री आदिका विस्तृत निरूपण है। एकादश अध्यायमें
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