________________
५. पाठ - प्रतिष्ठा ।
६. अर्थानुशासन ।
७. वाक्य विवेक ।
८. कवि विशेष |
९. कविचर्या ।
१०. राजचर्या ।
प्रस्तावना
११. काकु प्रकार ।
१२. शब्दार्थहरणोपाय ।
१३. कवि समय
१४. देश-काल विभाव ।
१५. भुवन कोश ।
इन विषयोंका अठारह अध्यायोंमें निरूपण आया है । द्वितीय अध्यायमें वाङ्मय के दो प्रकार बतलाये हैं- पौरुषेय और अपौरुषेय । पौरुषेय वाङ्मय में चौदह विद्याएँ वर्णित हैं । इनके निर्देशानुसार साहित्य विद्या भी पन्द्रहवीं विद्या है। इसमें चौदह विद्याओं का सार तत्त्व निहित है । प्रसंगवश सूत्र, भाष्य, वार्तिक, टीका, विवृति, कारिका एवं पंजिका आदिकी सरल सुन्दर व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयी हैं । तृतीय अध्याय में काव्यपुरुषकी उत्पत्ति, उसका विकास, रीति, वृत्ति, प्रवृत्ति आदिका सरस वर्णन पौराणिक रूपसे करते हुए काव्यको दर्शनशास्त्र के समान परम पुरुषार्थ मोक्षका साधन सिद्ध किया है । काव्य दो प्रकारके हैं — दृश्य और श्रव्य । दृश्य काव्योंकी प्रामाणिकता भरतके नाट्यशास्त्र द्वारा सिद्ध होती है । नाट्यके तीन प्रधान अंग हैंवेश - विन्यास, विलास विन्यास और वचन विन्यास | इन तीनोंका नाम प्रवृत्ति, वृत्ति और रीति है । इनमें वेश विन्यास और नृत्यगीत, हाव-भाव आदि विलास विन्यास मुख्य रूपसे दृश्य काव्यके उपयोगी होते हैं । परन्तु रीति या रचना शैली दृश्य और श्रव्यदोनों काव्योंमें समान रूपसे उपलब्ध होती है। रीतिके देशोंकी काव्यरचना पद्धतिके आधार पर गौडी, पांचाली और वैदर्भी, ये तीन भेद बतलाये गये हैं ।
-
५७
चतुर्थ अध्याय में अधिकारी या काव्यविद्याके शिष्योंकी मीमांसा की गयी है । काव्यअधिकारियोंके तीन भेद बतलाये गये हैं । एक वे हैं जो पूर्वजन्म के संस्कारवश स्वभावतः बुद्धिमान् होते हैं । दूसरे वे हैं जो गुरूपदेश, शास्त्राभ्यास एवं परिश्रम द्वारा कविताशक्ति प्राप्त करते । इन्हें आहार्यबुद्धि कहा जाता है। तीसरे वे दुर्बुद्धि शिष्य हैं, जिन्हें विरंचिसम गुरुके प्राप्त होनेपर भी ज्ञानोपलब्धि नहीं होती । इन्हें मन्त्र तन्त्र या देवाराधनसे कवित्वशक्ति उपलब्ध होती है ।
[<]
Jain Education International
प्रतिभा के सम्बन्धमें राजशेखरने विचार करते हुए इसके दो भेद किये हैं । एक कारयित्री और दूसरी भावयित्री । जिसके द्वारा निर्माण या रचना की जाती है वह कारयित्री प्रतिभा है और काव्यके गुण-दोषोंका विवेचन करनेवाली भावयित्री प्रतिभा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org