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प्रस्तावना
अलंकारचिन्तामणिमें चौबीस गुणोंका वर्णन किया है। अलंकार और गुणका भेद वामनने स्थापित किया है। इनके पूर्व अलंकार और गुणोंका भेद स्थापित नहीं हो सका था। भरत, भामह और दण्डीने गुणोंको भी अलंकारके समान शोभाकारक माना है। दण्डीने काव्यचमत्कारके सभी रूपोंको अलंकार कहा है। इनके अनुसार माधुर्य, ओज आदि गुण भी अलंकारके अन्तर्गत हैं । वामन, गुणोंको भावात्मक तथा दोषोंको उनका विपर्यय मानते हैं।
अलंकारचिन्तामणि में भी अलंकार और गुणोंका भेद प्रतिपादित हुआ है। दोषोंका निरूपण करनेके पूर्व लिखा है-"गुणानां भेदं सूचयन्तो दोषाः कथ्यन्ते'१ अर्थात् गुणोंके भेद कहते हुए दोषोंका वर्णन किया जा रहा है। दोष और गुणकी परिभाषा पृथक्-पृथक् रूपमें अलंकारचिन्तामणिमें आयी है।
___ अलंकारप्रसंगमें वामनका वैशिष्ट्य मूलतः दो उद्भावनाओंपर आधृत है। एक तो उन्होंने उपमाको समस्त अलंकारोंका मूल माना है और समस्त अप्रस्तुत विधानका उपमा प्रपंचके रूपमें वर्णन किया है। दूसरे वक्रोक्तिको लक्षणासादृश्यगर्भा कहां है । वक्रोक्तिके सम्बन्धमें यह इसीलिए महत्त्वपूर्ण उद्भावना है कि इससे ध्वनिसिद्धान्तका संकेत प्राप्त होता है। इन्होंने कान्तिगुणके विवेचनमें प्रकारान्तरसे रसको कान्तिका आधार बताया है।
अलंकारचिन्तामणिका अलंकार प्रकरण वामनसे अधिक विस्तृत है। शब्दालंकारोंका इतना विशद वर्णन काव्यालंकारसूत्रवृत्ति में नहीं आया है। अलंकारोंके वर्गीकरणका आधार भी अलंकारचिन्तामणिमें मनोवैज्ञानिक है। अजितसेनकी दष्टिमें भिन्न-भिन्न अलंकार वर्गोके पीछे विभिन्न प्रवृत्तियोंकी प्रेरणा सन्निहित रहती है। अतएव अलंकारचिन्तामणिकी स्थापनाएँ अधिक तर्कसंगत हैं। अलंकारचिन्तामणिमें काव्यके मूल और गौण तत्त्वोंका स्पष्ट विवेचन हुआ है। इतना ही नहीं अलंकारचिन्तामणिमें नायक-नायिकाके भेदोंकी मीमांसा भी विशिष्ट है। कवि, गमक, वादी और वाग्मीका स्वरूपनिर्धारण भी अलंकारचिन्तामणिका अपना निजी है। अलंकारोंके पारस्परिक भेदोंका निरूपण भी अलंकारचिन्तामणि में आया है । इस तरहके कथनका काव्यालंकारसूत्रवृत्तिमें नितान्त अभाव है। रुद्रटका काव्यालंकार और अलंकारचिन्तामणि
___ रुद्रटका अलंकार शास्त्रमें प्रतिष्ठित और उच्च स्थान है। इन्होंने काव्यालंकार नामक ग्रन्थमें काव्यके सभी तत्त्वोंपर प्रकाश डाला है। यह ग्रन्थ सोलह अध्यायोंमें विभक्त है। प्रथम अध्यायमें काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु, द्वितीयमें काव्य-लक्षण, रीति, भाषा-भेद, वक्रोक्ति आदि शब्दालंकार, तृतीयमें यमकालंकार, चतुर्थमें श्लेषालंकार,
१. अलंकारचिन्तामणि, ज्ञानपीठ संस्करण, ४१६० । २. वही, चतुर्थ परिच्छेद, पद्य सं. १,२ तथा गद्यांश. पृष्ठ ११२ ।
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