________________ 14] [ स्थानाङ्गसूत्रम् परावर्तन से अधिक रहता है उनके अन्धकारमय भविष्य की कोई सीमा निश्चित नहीं होने के कारण उन्हें कृष्णपाक्षिक कहा जाता है। लेश्या -पद १९१–एगा कण्हलेस्साणं वग्गणा / १९२-एगा गोललेसाणं वागणा। एवं जाव १९३-[एगा काउलेसाणं वगणा। १९४–एगा तेउलेसाणं वग्गणा। १९५--एगा पम्हलेसाणं वग्गणा। १६६.-एगा] सुक्कलेसाणं वग्गणा। १९७--एगा कण्हलेसाणं रइयाणं वग्गणा। १९८-[एगाणीललेसाणं रइयाणं वग्गणा जाव। १९४-एगा] काउलेसाणं रइयाणं वग्गणा / २००-एवं-जस्स जइ लेसामो-भवणवइ-वाणमंतर-पुढवि-आउ-वणस्सइकाइयाणं च चत्तारि लेसामो, तेउ-वाउ-वेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं तिणि लेसाओ, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुम्साणं छल्लेस्सामो, जोतिसियाणं एगा तेउलेसा वेमाणियाणं तिणि उरिमलेसाम्रो / कृष्णलेश्यावाले जीवों की वर्गणा एक है (161) / नीललेश्यावाले जीवों की वर्गणा एक है (190) / [कापोतलेश्यावाले जीवों की वर्गणा एक है (163) / तेजोलेश्यावाले जीवों की वर्गणा एक है (194) / पद्मलेश्यावाले जीवों की वर्गणा एक है (165) / शुक्ललेश्यावाले जीवों की वर्गणा एक है (196) / कृष्णलेश्यावाले नारक जीवों की वर्गणा एक है (197) / [नीललेश्यावाले नारक जीवों की वर्गणा एक है (198)1] कापोतलेश्यावाले नारक जीवों की वर्गणा इसी प्रकार जिन दण्डकों में जितनी लेश्याएं होती हैं (उनके अनुसार उनकी एक-एक वर्गणा है (200) / भवनपति, वाण-व्यन्तर, पृथ्वी, अप् (जल) और वनस्पतिकायिक जीवों में प्रारम्भ की चार लेश्याएं होती हैं / अग्नि, वायु, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में आदि की तीन लेश्याएं होती हैं / पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और मनुष्यों के छहों लेश्याएं होती है। ज्योतिष्क देवों के एक तेजोलेश्या होती है / वैमानिक देवों के अन्तिम तीन लेश्याएं होती है (200) / २०१-एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा। २०२----एगा कण्हलेसाणं प्रभवसिद्धियाणं वग्गणा। २०३–एवं छवि लेसास दो दो पयाणि भाणियवाणि। २०४---एगा कण्हलंसाण भवसिद्धियाणं रइयाणं वग्गणा। २०५--एगा कण्हलेसाणं प्रभवसिद्धियाणं रइयाणं वग्गणा। २०६-एवं-जस्स नति लेसामो तस्स ततियानो भाणियवाओ जाव वेमाणियाणं / कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक जीवों की एक वर्गणा है (201) / कृष्णलेश्यावाले अभवसिद्धिक जीवों की वर्गणा एक है (202) / इसी प्रकार छहों (कृष्ण, नील, कापोत, तैजस, पद्म और शुक्ल) लेश्यावाले भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीवों को वर्गणा एक-एक है (203) / कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक नारक जीवों की वर्गणा एक है (204) / कृष्णलेश्यावाले अभवसिद्धिक नारक जीवों की वर्गणा एक है (205) / इसी प्रकार जिसके जितनी लेश्याएं होती हैं, उसके अनुसार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों की वर्गणा एक-एक है (206) / २०७-एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिट्टियाणं वग्गणा। २०८-एगा कण्हलेसाणं मिच्छद्दिट्ठियाणं वग्गणा / २०६—एगा कण्हलेसाणं सम्मामिच्छद्दिट्टियाणं वगणा / २१०--एवं-छसुवि लेसासु जाव वेमाणियाणं 'जेसि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org