Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 793
________________ दशम स्थान ] [725 10. श्रमण भगवान् महावीर मन्दर-पर्वत पर मन्दर-चूलिका के ऊपर एक महान् सिंहासन पर अपने को स्वप्न में बैठा हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् के मध्य में विराजमान होकर केवलि-प्रज्ञप्त धर्म का पाख्यान किया, प्रज्ञापन किया, प्ररूपण किया, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया (103) / सम्यक्त्व-सूत्र 104--- दसविधे सरागसम्मइंसणे पण्णते, तं जहासंग्रहणी-गाथा णिसग्गुबएसरुई, प्राणारुई सुत्तबीयरुइमेव / अभिगम वित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई // 1 // सरागसम्यग्दर्शन दश प्रकार का कहा गया है। जैसे१. निसर्गरुचि-विना किसी बाह्य निमित्त से उत्पन्न हया सम्यग्दर्शन / 2. उपदेशरुचि--गुरु आदि के उपदेश से उत्पन्न हुना सम्यग्दर्शन / 3. आज्ञारुचि--अर्हत-प्रज्ञप्त सिद्धान्त से उत्पन्न हुया सम्यग्दर्शन / 4. सूत्ररुचि-सूत्र-ग्रन्थों के अध्ययन से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन / 5. बीजरुचि-बीज की तरह अनेक अर्थों के बोधक एक ही वचन के मनन से उत्पन्न हुप्रा सम्यग्दर्शन। 6. अभिगमरुचि सूत्रों के विस्तृत अर्थ से उत्पन्न हुअा सम्यग्दर्शन / 7. विस्ताररुचि---प्रमाण-नय के विस्तारपूर्वक अध्ययन से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन / 8. क्रियाचि- धार्मिक क्रियाओं के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन / 6. संक्षेपरुचि-संक्षेप से-कुछ धर्म-पदों के सुनने मात्र से उत्पन्न हुअा सम्यग्दर्शन / 10. धर्मरुचि-थ तधर्म और चारित्रधर्म के श्रद्धान से उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शन (104) / संज्ञा-सूत्र १०५-दस सण्णासो पण्णत्तायो, त जहा-पाहारसग्णा, (भयसण्णा, मेहुणसण्णा), परिगहसण्णा, कोहसण्णा, (माणसण्णा, मायासण्णा) लोभसण्णा, लोगसण्णा, पोहसण्णा / संज्ञाएं दश प्रकार की कही गई हैं / जैसे--- 1. प्राहारसंज्ञा, 2 भयसंज्ञा, 3. मैथुनसंज्ञा, 4, परिग्रहसंज्ञा, 5. क्रोधसंज्ञा, 6. मानसंज्ञा, 7. मायासंज्ञा, 8. लोभसंज्ञा, 6. लोकसंज्ञा, 10. प्रोघसंज्ञा (105) / विवेचन-आहार आदि चार संज्ञाओं का अर्थ चतुर्थ स्थान में किया गया तथा क्रोधादि चार कषायसंज्ञाएं भी स्पष्ट ही हैं / संस्कृत टीकाकार ने लोकसंज्ञा का अर्थ सामान्य अवबोधरूप क्रिया या दर्शनोपयोग और प्रोघसंज्ञा का अर्थ विशेष अवबोधरूप क्रिया या ज्ञानोपयोग करके लिखा है कि कुछ प्राचार्य सामान्य प्रवृत्ति को प्रोघसंज्ञा और लोकदष्टि को लोकसंज्ञा कहते हैं। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि मन के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह दो प्रकार का होता है-विभागात्मक ज्ञान और निविभागात्मक ज्ञान / स्पर्श-रसादि के विभाग बाला विशेष ज्ञान विभागात्मक ज्ञान है और स्पर्श-रसादि के विभाग विना जो साधारण ज्ञान होता है, उसे प्रोघसंज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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