Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 797
________________ [ 726 दशम स्थान ] ११६-दीहदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा चंदे सूरे य सुक्के य, सिरिदेवी पभावती। दोवसमुद्दोववत्ती बहूपुत्ती मंदरेति य // थेरे संभूतिविजए य, थेरे पम्ह ऊसासणीसासे // 1 // दीर्घदशा के दश अध्ययन कहे गये हैं / जैसे१. चन्द्र, 2. सूर्य, 3. शुक्र, 4. श्रीदेवी, 5. प्रभावती, 6. द्वीप-समुद्रोपपत्ति, 7. बहुपुत्री मन्दरा, 8. स्थविर सम्भूतविजय, 6. स्थविर पक्ष्म, 10. उच्छ्वास-नि:श्वास (116) / १२०–संखेवियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा–खुड्डिया विमाणपविभत्ती, महल्लिया विमाणपविभत्ती, अंगलिया, वग्गलिया, विवाहलिया, अरुणोदवाते, वरुणोवदाते, गरुलोववाते, वेलंधरोववाते, वेसमणोदवाते / संक्षेपिकदशा के दश अध्ययन कहे गये हैं। जैसे१ क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति, 2. महतोविमानप्रविभक्ति 3. अंगचूलिका (आचार आदि अंगों की चूलिका) 4. वर्गचलिका (अन्तकृतदशा की चूलिका), 5. विवाहचूलिका (व्याख्याप्रज्ञप्ति की चूलिका) 6. अरुणोपपात, 7. वरुणोपपात, 8. गरुडोपपात, 6. बेलंधरोपपात, 10. वैश्रमणोपपात (120) / कालचक्र-सत्र १२१---दस सागरोवमकोडाकोडीमो कालो ओस प्पिणीए / अवसर्पिणी का काल दश कोडाकोड़ी सागरोपम है (121) / १२२-दस सागरोबमकोडाकोडीनो कालो उस्स टिपणीए। उत्सर्पिणी का काल दश कोडाकोड़ी सागरोपम है (122) / अनन्तर-परम्पर-उपपन्नादि-सूत्र १२३-दसविधा रइया पण्णता, तं जहा--अणंतरोववण्णा, परंपरोववण्णा, प्रणंतरावगादा, परंपरावगाढा, अणंतराहारगा, परंपराहारगा, प्रणंतरपज्जत्ता, परंपरपज्जत्ता, चरिमा, प्रचरिमा। एवं--णिरंतरं जाव वेमाणिया / नारक दश प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. अनन्तर-उपपन्न नारक-जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय हुआ है। 2. परम्पर-उपपन्न नारक---जिन्हें उत्पन्न हुए दो आदि अनेक समय हो चके हैं। 3. अनन्तर-प्रवगाढ नारक-विवक्षित क्षेत्र से संलग्न अाकाश-प्रदेश में अवस्थित / 4. परम्पर-अवगाढ नारक-विवक्षित क्षेत्र से व्यवधान वाले आकाश-प्रदेश में अवस्थित। 5. अनन्तर-आहारक नारक-प्रथम समय के प्राहारक / 6. परम्पर-आहारक नारक-दो आदि समयों के ग्राहारक / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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