Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 736 ] [स्थानांगसूत्र कल्प-सूत्र १४८-दस कप्पा इंदाहिट्ठिया पण्णत्ता, तं जहा—सोहम्मे, (ईसाणे, सणंकुमारे, माहिदे, बंभलोए, लंतए, महासुक्के), सहस्सारे, पाणते, अच्चुते / इन्द्रों से अधिष्ठित कल्प दश कहे गये हैं / जैसे 1. सौधर्म कल्प, 2. ईशान कल्प, 3. सनत्कुमार कल्प 4. माहेन्द्र कल्प 5. ब्रह्मलोक कल्प, 6. लान्तक कल्प, 7. महाशुक्र कल्प, 8. सहस्रार कल्प, 6. प्राणत कल्प, 10. अच्युत कल्प (148) / १४६-एतेसु णं दससु कप्पेसु दस इंदा पण्णत्ता, तं जहा–सक्के, ईसाणे, (सणंकुमारे, माहिदे, बंभे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे, पाणते), अच्चुते / इन दश कल्पों में दश इन्द्र हैं / जैसे 1. शक्र, 2. ईशान, 3. सनत्कुमार, 4. माहेन्द्र, 5. ब्रह्म, 6. लान्तक, 7. महाशुक्र, 8. सहस्रार, 6. प्राणत, 10. अच्युत (146) / १५०-एतेसि णं दसण्ह इंदाणं दस परिजाणिया बिमाणा पण्णत्ता, तं जहा-पालए, पुप्फए, (सोमणसे, सिरिवच्छे, मंदियावत्ते, कामकमे, पोतिमणे, मणोरमे), विमलवरे, सव्वतोभद्दे / इन दशों इन्द्रों के पारियानिक विमान दश कहे गये हैं। जैसे 1. पालक, 2. पुष्पक, 3. सौमनस, 4. श्रीवत्स, 5. नन्द्यावर्त, 6. कामक्रम 7. प्रीतिमना 8. मनोरम, 8. विमलवर, 10. सर्वतोभद्र (150) / प्रतिमा-सूत्र १५१-दसदसमिया गं भिक्खुपडिमा एगेण रातिदियसतेणं प्रद्धछ? हि य भिक्खासतेहि अहासुत्तं (प्रहाप्रत्थं अहातच्चं प्रहामगं अहाकप्पं सम्मं कारणं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया) पाराहिया यावि भवति / दश-दशमिका भिक्षु-प्रतिमा सौ दिन-रात, तथा 550 भिक्षा-दत्तियों द्वारा यथासूत्र, यथाअर्थ, यथातथ्य, यथामार्ग, यथाकल्प, तथा सम्यक् प्रकार काय से आचरित, पालित, शोधित, पूरित, कीतित और पाराधित की जाती है (151) / जीव-सूत्र १५२–दसविधा ससारसमवण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा--पढमसमयएगिदिया, अपढ़मसमयएगिदिया, (पढमसमयबेइंदिया, अपढमसमयबेइंदिया, पढमसमयतेइंदिया, अपढमसमयतेइंदिया, पढमसमयचरिदिया, अपढमसमयचउरिदिया, पढमसमयपंचिदिया,) अपढमसमयचिदिया। संसारी जीव दश प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. जिनको उत्पन्न हुए प्रथम समय ही है ऐसे एकेन्द्रिय जीव / 2. अप्रथम-जिनको उत्पन्न हुए एक से अधिक समय हो चुका है ऐसे एकेन्द्रिय जीव / 3. प्रथम समय में उत्पन्न द्वीन्द्रिय जीव / 4. अप्रथम समय में उत्पन्न द्वीन्द्रिय जीव / 5. प्रथम समय में उत्पन्न त्रीन्द्रिय जीव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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