Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 801
________________ दशम स्थान ] [733 4 विज्ञक-विद्यागरुका शिष्य / 5. औरस-स्नेहवश स्वीकार किया पुत्र / 6. मौखर-वचन-कुशलता के कारण पुत्र रूप से स्वीकृत / 7. शौण्डीर-शूरवीरता के कारण पुत्र रूप से स्वीकृत / 8 संवधित-पालन-पोषण किया गया अनाथ पुत्र / 6. औपयाचितक-देवता की आराधना से उत्पन्न पुत्र, या प्रिय सेवक / 10. धर्मान्तेवासी-धर्माराधन के लिए समीप रहने वाला शिष्य (137) / अनुत्तर-सूत्र १३८-केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पण्णत्ता, तं जहा–अणुत्तरे णाणे, अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वोरिए, अणुत्तरा खंती, अणुत्तरा मुत्ती, अणुत्तरे प्रज्जवे, अणुत्तरे मद्दवे, अणुत्तरे लाघवे। केवली के दश अनुत्तर (अनुपम धर्म) कहे गये हैं / जैसे---- 1. अनुत्तर ज्ञान, 2. अनुत्तर दर्शन, 3. अनुत्तर चारित्र, 4. अनुत्तर तप, 5. अनुत्तर वीर्य, 6. अनुत्तर शान्ति, 7. अनुत्तर मुक्ति, 8. अनुत्तर प्रार्जव, 6. अनुत्तर मार्दव, 10. अनुत्तर लाघव (138) / कुरा-सूत्र १३६-समयखेत णं दस कुरानो पण्णत्तानो, तं जहा-पंच देवकुरामो पंच उत्तरकुरायो। तत्थ णं दस महतिमहालया महादुमा पण्णत्ता, तं जहा-जम्बू सुदंसणा, धायइरुक्खे, महाधायइरुक्खे, पउमरुक्खे, महापउमरुक्खे, पंच कूडसामलीयो। तत्थ गं दस देवा महिडिया जाव परिवति, तं जहा-श्रणाढिते जंबुद्दीवाधिपती, सुदंसणे, पियदसणे, पोंडरीए, महापोंडरोए, पंच गरुला वेणुदेवा / समयक्षेत्र (मनुष्यलोक) में दश कुरा कहे गये हैं। जैसेपाँच देवकुरा, पाँच उत्तरकुरा। वहां दश महातिमहान् दश महाद्र म कहे गये हैं / जैसे१. जम्बू सुदर्शन वृक्ष, 2. धातकीवृक्ष, 3. महाधातकी वृक्ष, 4. पद्म वृक्ष 5. महापद्म वृक्ष / तथा पाँच कूटशाल्मली वृक्ष / वहां महधिक, महाद्य ति सम्पन्न, महानुभाग, महायशस्वी, महाबली और महासुखी तथा एक पल्योपम की स्थितिवाले दश देव रहते हैं / जैसे१. जम्बूद्वीपाधिपति अनादृत, 2. सुदर्शन 3. प्रियदर्शन, 4. पौण्डरीक, 5. महापौण्डरीक / तथा पाँच गरुड़ वेणुदेव ((136) / दुःषमा-लक्षण-सूत्र १४०-दसहि ठाणेहिं प्रोगाढं दुस्सम जाणेज्जा, तं जहा-अकाले वरिसइ, काले ण वरिसइ, असाहू पूइज्जंति, साहू ण पूइज्जंति, गुरुसु जणो मिच्छं पडिवण्णो, अमणुण्णा सद्दा, (अमणुष्णा रूवा, अमणुण्णा गंधा, अमणुण्णा रसा, प्रमणुण्णा) फासा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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