________________ चतुर्थ स्थान-तृतीय उद्देश ] [ 367 इहाय-परार्थ सूत्र ४६६-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-इहत्थे णाममेगे णो परत्थे, परत्थे गाममेगे णो इहत्थे / [एगे इहत्थेवि परत्थेवि, एगे जो इहत्थे णो परत्थे] 4 / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. इहार्थ, न परार्थ-कोई पुरुष इहार्थ (इस लोक सम्बन्धी प्रयोजनवाला) होता है, किन्तु परार्थ (परलोक सम्बन्धी प्रयोजनवाला) नहीं होता। 2. परार्थ, न इहार्थ-कोई पुरुष परार्थ होता है किन्तु इहार्थ नहीं होता। 3. इहार्थ भी, परार्थ भी—कोई पुरुष इहार्थ भी होता है और परार्थ भी होता है। 4. न इहार्थ, न परार्थ-कोई पुरुष न इहार्थ ही होता है और न परार्थ ही होता है (466) / विवेचन संस्कृत टीकाकार ने सूत्र-पठित 'इहत्थ' और 'परत्थ' इन प्राकृत पदों के क्रमशः 'इहास्थ' और 'परास्थ' ऐसे भी संस्कृत रूप दिये हैं। तदनुसार 'इहास्थ' का अर्थ इस लोक सम्बन्धी कार्यों में जिसकी आस्था है, वह 'इहास्थ' पुरुष है और जिसकी परलोक सम्बन्धी कार्यों में आस्था है, वह 'परास्थ' पुरुष है / अतः इस अर्थ के अनुसार चारों भंग इस प्रकार होंगे 1. कोई पुरुष इस लोक में आस्था (विश्वास) रखता है, परलोक में आस्था नहीं रखता / 2. कोई पुरुष परलोक में आस्था रखता है, इस लोक में आस्था नहीं रखता। 3. कोई पुरुष इस लोक में भी आस्था रखता है और परलोक में भी आस्था रखता है / 4. कोई पुरुष न इस लोक में आस्था रखता है और न परलोक में ही आस्था रखता है / हानि-वृद्धि-सूत्र ४६७–चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहाएगेणं णाममेगे वडुति एगेणं हायति, एगेणं णाममेगे वट्टति दोहि हायति, दोहिं णाममेगे वड्डति एगेणं हायति, दोहिं णाममेगे वडति दोहि हायति / पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. एक से बढ़ने वाला, एक से हीन होने वाला कोई पुरुष एक-शास्त्राभ्यास से बढ़ता है और एक-सम्यग्दर्शन से हीन होता है। 2. एक से बढ़ने वाला, दो से हीन होने वाला कोई पुरुष एक शास्त्राभ्यास से बढ़ता है, किन्तु सम्यग्दर्शन और विनय इन दो से हीन होता है। 3. दो से बढ़ने वाला, एक से हीन होने वाला कोई पुरुष शास्त्राभ्यास और चारित्र इन दो से बढ़ता है और एक-सम्यग्दर्शन से हीन होता है। 4. दो से बढ़ने वाला, दो से हीन होने वाला कोई पुरुष शास्त्राभ्यास और चारित्र इन दो से बढ़ता है और सम्यग्दर्शन एवं विनय इन दो से हीन होता है (467) / विवेचन-सूत्र-पठित 'एक', और 'दो' इन सामान्य पदों के आश्रय से उक्त व्याख्या के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार से व्याख्या की है। जो कि इस प्रकार है 1. कोई पुरुष एक-ज्ञान से बढ़ता है और एक-राग से हीन होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org