________________ पंचम स्थान-तृतीय उद्देश ] [523 2. व्यय-छेदन–विनाश पर्याय के आधार पर विभाग करना / 3. बन्ध-छेदन-कर्म-बन्ध का छेदन, या पुद्गलस्कन्ध का विभाजन / 4. प्रदेश-छेदन-निविभागी वस्तु के प्रदेश का बुद्धि से विभाजन / 5. द्विधा-छेदन-किसी वस्तु के दो विभाग करना (215) / आनन्तर्य-सूत्र २१६-पंचविहे आणतरिए पग्णते, तजहा--उप्पायाणंतरिए, विधाणंतरिए, पएसाणंतरिए, समयाणंतरिए. सामण्णाणंतरिए। आनन्तर्य (विरह का प्रभाव) पाँच प्रकार का कहा गया है / जैसे१. उत्पाद-आनन्तर्य---लगातार उत्पत्ति / 2. व्यय-यानन्तर्य-लगातार विनाश / 3. प्रदेश-आनन्तर्य-लगातार प्रदेशों की संलग्नता / 4. समय-ग्रानन्तर्य-समय की निरन्तरता। 5. सामान्य-प्रानन्तर्य-किसी पर्याय विशेष की विवक्षा न करके सामान्य निरन्तरता। विवेचन-उपर्युक्त दोनों सूत्रों का उक्त सामान्य शब्दार्थ लिखकर संस्कृत टोकाकार ने एक दूसरा भी अर्थ किया है जो एक विशेष अर्थ का बोधक है। उसके अनुसार छेदन का अर्थ 'विरहकाल' और प्रानन्तर्य का अर्थ 'अविरहकाल' है / कोई जीव किसो विवक्षित पर्याय का त्याग कर अन्य पर्याय में कुछ काल तक रह कर पुनः उसी पूर्व पर्याय को जितने समय के पश्चात् प्राप्त करता है, उतने मध्यवर्ती काल का नाम विरहकाल है। यह एक जीव की अपेक्षा विरहकाल का कथन है / नाना जीवों की अपेक्षा–यदि नरक में लगातार कोई भी जीव उत्पन्न न हो, तो बारह मुहूर्त तक एक भी जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होगा। अत: नरक में उत्पाद का छेदन अर्थात् विरहकाल बारह मुहूर्त का कहा जायगा। इसी प्रकार उत्पाद का आनन्तर्य अर्थात् लगातार उत्पत्ति को उत्पाद-पानन्तर्य या उत्पाद का अविरह-काल समझना चाहिए। जैसे-यदि नरकगति में लगातार नारकी जीव उत्पन्न होते रहें तो कितने काल तक उत्पन्न होते रहेंगे? इसका उत्तर है कि नरक में लगातार जीव असंख्यात समय तक उत्पन्न होते रहेंगे। अत: नरक गति में उत्पाद का आनन्तर्य या अविरहकाल असंख्यात समय कहा जायगा। इसी प्रकार व्यय-च्छेदन का अर्थ विनाश का अविरहकाल और व्यय-आनन्तर्य का अर्थ व्यय का विरहकाल लेना चाहिए / अर्थात् नरक से मर करके बाहर निकलने वाले जीवों का विना व्यवच्छेद के लगातार निकलने का क्रम जितने समय तक जारी रहेगा—वह व्यय का अविरहकाल कहलायगा / तथा जितने समय तक नरकगति से एक भी जीव नहीं निकलेगा, वह नरक के व्यय का विरहकाल कहलायगा / कर्म का बन्ध लगातार जितने समय तक होता रहेगा, वह बंध का अविरहकाल है और जितने काल के लिए कर्म का बन्ध नहीं होगा, वह बन्ध का विरहकाल है / जैसे अभव्य के लगातार कर्मबन्ध होता ही रहेगा, कभी विरह नहीं होगा, अतः अभव्य के कर्मबन्ध का अविरहकाल अनन्त समय है। भव्यजीव उपशम श्रेणी पर चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचता है, वहां पर एकमात्र साता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org