________________ सप्तम स्थान] [ 563 2. माकार-आगे ऐसा मत करना। 3. धिक्कार धिक्कार है त ! तने ऐसा किया ? 4. परिभाष-अल्प काल के लिए नजर-कैद रखने का आदेश देना। 5. मण्डलबन्ध-नियत क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। 6. चारक----जेलखाने में बन्द रखने का आदेश देना। 7. छविच्छेद-हाथ-पैर आदि शरीर के अंग काटने का आदेश देना। विवेचन-उक्त सात दण्डनीतियों में से पहली दण्डनीति का प्रयोग पहले और दुसरे कूलकर ने किया। इसके पूर्व सभी मनुष्य अकर्मभूमि या भोगभूमि में जीवन-यापन करते थे। उस समय युगल-धर्म चल रहा था। पुत्र-पुत्री एक साथ उत्पन्न होते, युवावस्था में वे दाम्पत्य जीवन बिताते और मरते समय युगल-सन्तान को उत्पन्न करके कालगत हो जाते थे। प्रथम कुलकर के समय में उक्त व्यवस्था में कुछ अन्तर पड़ा और सन्तान-प्रसव करने के बाद भी वे जीवित रहने लगे और भोगोपके साधन घटने लगे। उस समय पारस्परिक संघर्ष दूर करने के लिए लोगों की भूमि-सीमा बांधी गई और उसमें वृक्षों से उत्पन्न फलादि खाने की व्यवस्था की गई / किन्तु काल के प्रभाव से जब वृक्षों में भी फल-प्रदान-शक्ति घटने लगी और एक युगल दूसरे युगल की भूमि-सीमा में प्रवेश कर फलादि तोड़ने और खाने लगे, तब अपराधी व्यक्तियों को कुलकरों के सम्मुख लाया जाने लगा। उस समय लोग इतने सरल और सीधे थे कि कुलकर द्वारा 'हा' (हाय, तुमने क्या किया?) इतना मात्र कह देने पर आगे अपराध नहीं करते थे / इस प्रकार प्रथम दण्डनीति दूसरे कुलकर के समय तक चली। किन्तु काल के प्रभाव से जब अपराध पर अपराध करने की प्रवृत्ति बढ़ी तो तीसरे-चौथे कुलकर ने 'हा' के साथ 'मा' दण्डनीति जारी की। पीछे जब और भी अपराधप्रवृत्ति बढ़ी तब पांचवें कुलकर ने 'हा, मा' के साथ 'धिक्' दण्डनीति जारी की। इस प्रकार स्वल्प अपराध के लिए 'हा', उससे बड़े अपराध के लिए 'मा' और उससे बड़े अपराध के लिए 'धिक' दण्डनीति का प्रचार अन्तिम कुलकर के समय तक रहा / जब कुलकर-युग समाप्त हो गया और कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ तब इन्द्र ने भ० ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया और लोगों को उनकी प्राज्ञा में चलने का आदेश दिया। भ० ऋषभदेव के समय में जब अपराधप्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ने लगी, तब उन्होंने चौथी परिभाष और पांचवीं मण्डलबन्ध दण्डनीति का उपयोग किया / तदनन्तर अपराध-प्रवृत्तियों को उग्रता बढ़ने पर भरत चक्रवर्ती ने अन्तिम चारक और छविच्छेद इन दो दण्डनीतियों का प्रयोग करने का विधान किया। कुछ प्राचार्यों का मत है कि भ० ऋषभदेव ने तो कर्मभूमि की ही व्यवस्था की। अन्तिम चारों दण्डनीतियों का विधान भरत चक्रवर्ती ने किया है। इस विषय में विभिन्न प्राचार्यों के विभिन्न अभिमत हैं। चक्रवति-रन-सूत्र ६७-एगमेगस्स णं रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स सत्त एगिदियरतणा पण्णत्ता, तं जहा.-चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, दंडरयणे, असिरयणे, मणिरयणे, काकणिरयणे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org