Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 787
________________ दशम स्थान] [716 न समणुजानामि' इन दो खंडों का संग्रह किया गया है / द्वितीय खंड 'न करेमि' आदि तीन वाक्यों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खंड 'मणेणं' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' स्पष्टीकरण है। यहां 'न करेमि' आदि बाद में हैं और 'मणेणं' आदि पहले / यह क्रम-भेद है / काल-भेद-जैसे-सक्के देविदे देवराया वंदति नमसति' यहाँ अतीत के अर्थ में वर्तमान की क्रिया का प्रयोग है (66) / दान-सूत्र ९७-दसविहे दाणे पण्णत्ते, तं जहासंग्रह-श्लोक अणुकंपा संगहे चेव, भये कालुणिएति य / लज्जाए गारबेणं च, अहम्मे उण सत्समे // धम्म य अटुमे वृत्त, काहीति य कतंति य // 1 // दान दश प्रकार का कहा गया है / जैसे१. अनुकम्पा-दान--करुणाभाव से दान देना / 2. संग्रह-दान-सहायता के लिए दान देना / 3. भय-दान-भय से दान देना। 4. कारुण्य-दान-मृत व्यक्ति के पीछे दान देना / 5. लज्जा-दान-लोक-लाज से दान देना। 6. गौरव-दान-यश के लिए, या अपना बड़प्पन बताने के लिए दान देना। 7. अधर्म-दान--अधार्मिक व्यक्ति को दान देना या जिससे हिंसा आदि का पोषण हो / 8. धर्म-दान-धार्मिक व्यक्ति को दान देना / 6. कृतमिति-दान—कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए दान देना / 10. करिष्यति-दान---भविष्य में किसो का सहयोग प्राप्त करने की आशा से देना (97) / गति-सूत्र १८---दस विधा गती पण्णत्ता, तं जहा-णिरयगतो, णिरयविग्गहगती, तिरियगती, तिरिय. विग्गहगती, (मणुयगती मणुयविगहगतो, देवगती, देवविग्गहाती), सिद्धगती, सिद्धिविग्गहगती। गति दश प्रकार को कही गई है / जैसे-- 1. नरकगति, 2. नरकविग्रहगति, 3. तिर्यग्गति 4. तिर्यग्विग्रहगति, 5. मनुष्यगति, 6. मनुष्यविग्रहगति, 7. देवगति, 8. देवविग्रहगति, 6. सिद्धिगति, 10. सिद्धि-विग्रहगति (68) / विवेचन--'विग्रह' शब्द के दो अर्थ होते हैं-वक्र या मोड़ और शरीर / प्रारम्भ के आठ पदों में से चार गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव ऋज और वक्र दोनों प्रकार से गमन करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक गति का प्रथम पद ऋजुगति का बोधक है और द्वितीयपद वक्रगति का बोधक है, यह स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु सिद्धिगति तो सभी जीवों की 'अविग्रहा जीवस्य' इस तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार विग्रहरहित ही होती है अर्थात् सिद्धजीव सोधी ऋजुगति से मुक्ति प्राप्त करते हैं / इस व्यवस्था के अनुसार दशवें पद 'सिद्धिविग्रहगति' नहीं घटित होती है / इसी बात को ध्यान में रखकर संस्कृत टीकाकार ने 'सिद्धिविग्गहगई' त्ति सिद्धावविग्रहेण---अवक्रेण गमनं सिद्धयविग्रहगतिः, अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827