________________ षष्ठ स्थान] [ 545 विवेचन--सूत्रोक्त पदों का विवरण इस प्रकार है१. प्रागति--पूर्वभव से भर कर वर्तमान भव में आना। 2. अवक्रान्ति-उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होना। 3. आहार-प्रथम समय में शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना / 4. वृद्धि-उत्पत्ति के पश्चात् शरीर का बढ़ना। 5. हानि-शरीर के पुद्गलों का ह्रास / / 6. विक्रिया-शरीर के छोटे-बड़े आदि आकारों का निर्माण / 7. गति-पर्याय—गमन करना। 8. समुद्धात-कुछ प्रात्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना / 6. काल-संयोग-सूर्य-परिभ्रमण-जनित काल-विभाग / 10. दर्शनाभिगम-अवधिदर्शन आदि के द्वारा वस्तु का अवलोकन / 11. ज्ञानाभिगम–अवधिज्ञान आदि के द्वारा वस्तु का परिज्ञान / 12. जीवाभिगम-अवधिज्ञान आदि के द्वारा जीवों का परिज्ञान / 13. अजीवाभिगम-अवधि आदि के द्वारा पुद्गलों का परिज्ञान / उपर्युक्त गति-प्रागति प्रादि सभी कार्य छहों दिशाओं से सम्पन्न होते हैं / ४०–एवं पचिदियतिरिक्खजोणियाणवि, मणुस्साणवि / इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों की और मनुष्यों की गति-प्रागति आदि छहों दिशा में होती है / (40) आहार-सूत्र ४१-छहिं ठाणेहि समणे णिग्गंथे पाहारमाहारेणःणे णातिक्कमति, तं जहासंग्रहणी-गाथा वेयण-वेयावच्चे, ईरियट्ठाए य संज मट्टाए। तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धचिताए // 1 // छह कारणों से श्रमण निर्गन्थ आहार को ग्रहण करता हुआ भगवान् को आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। जैसे 1. वेदना-भूख की पीड़ा दूर करने के लिए। 2. गुरुजनों की वैयावृत्त्य करने के लिए। 3. ईर्यासमिति का पालन करने के लिए। 4. संयम की रक्षा के लिए। 5. प्राण-धारण करने के लिए। 6. धर्म का चिन्तन करने के लिए (41) / 42 -छहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णातिक्कमति, तं जहासंग्रहणी गाथा अातंके उवसग्गे, तितिक्खणे बंभचेरगुत्तोए। पाणिदया-तवहेळं, सरीरवु छे रहर / / 1 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org