________________ सप्तम स्थान] [587 सममद्धसमं चेव, सम्वत्थ विसमं च जं। तिणि वित्तप्पयाराई, चउत्थं गोपलब्भती // 6 // सक्कता पागता चेव, दोण्णि य भणिति प्राहिया। सरमंडलंमि गिज्जते, पसत्या इसिमासिता // 10 // केसी गायति मधुरं ? केसी गायति खरं च रुक्खं च ? केसी गायति चउरं ? केसि विलंब ? दुतं केसी ? विस्सरं पुण केरिसी? // 11 // सामा गायइ मधुरं, काली गायइ खरं च रुक्खं च / गोरी गायति चउर, काण विलंबं दुतं अंधा / विस्सरं पुण पिंगला // 12 // तंतिसमं तालसमं, पादसमें लयसमं गहसमं च / णीससिऊससियसमं संचारसमा सरा सत्त // 13 // सत्त सरा तमो गामा, मुच्छणा एकविसती। ताणा एगणपण्णासा, समत्तं सरमंडलं // 14 // (1) प्रश्न सातों स्वर किससे उत्पन्न होते हैं ? गीत की योनि क्या है ? उसका उच्छवास काल कितने समय का है ? और गति के आकार कितने होते हैं। (2-3) उत्तर--सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। रुदन गेय की योनि है। जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका उच्छ्वासकाल होता है। गीत के तीन आकार होते हैं आदि में मृदु, मध्य में तीव्र और अन्त में मन्द / गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त, और दो भणितियां होती हैं / जो इन्हें जानता है, वही सुशिक्षित व्यक्ति रंगमंच पर गा सकता है / गीत के छह दोष इस प्रकार हैं१. भीत दोष-डरते हुए गाना। 2. द्रुत दोष-शीघ्रता से गाना / 3. ह्रस्व दोष-~-शब्दों को लघु बना कर गाना / 4. उत्ताल दोष-ताल के अनुसार न गाना। 5. काकस्बर दोष-काक के समान कर्ण-कटु स्वर से गाना। 6. अनुनास दोषनाक के स्वरों से गाना / गीत के आठ गुण इस प्रकार हैं१. पूर्ण गुण-स्वर के प्रारोह-अवरोह आदि से परिपूर्ण गाना / 2. रक्त गुण-गाये जाने वाले राग से परिष्कृत गाना / 3. अलंकृत कुण-विभिन्न स्वरों से सुशोभित गाना / 4. व्यक्त गुण-स्पष्ट स्वर से गाना / 5. अविघुष्ट गुण-नियत या नियमित स्वर से गाना। 6. मधुर गुण-मधुर स्वर से गाना / गीतालघबनाना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org