________________ सप्तम स्थान ] [571 2. पंचदिग्लोकाभिगम-पांचों दिशाओं में ही सर्वलोक को जानने वाला। 3. जीव को कर्मावृत नहीं, किन्तु क्रियावरण मानने वाला। 4. मुदग्गजीव-जीव के शरीर को मुदग्ग-(पुद्गल-) निर्मित ही मानने वाला / 5. अमुदग्गजीव-जीव के शरीर को पुद्गल-निर्मित नहीं हो मानने वाला / 6. रूपी जीव-जीव को रूपी ही मानने वाला। 7. यह सर्वजीव- इस सर्व दृश्यमान जगत् को जीव ही मानने वाला। उनमें यह पहला विभंगज्ञान है जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान मे पूर्वदिशा को या पश्चिम दिशा को या दक्षिण दिशा को या उत्तर दिशा को या ऊर्ध्वदिशा को सौधर्मकल्प तक, इन पाँचों दिशाओं में से किसी एक दिशा को देखता है / उस समय उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं इस एक दिशा में ही लोक को देख रहा हूँ / कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक पांचों दिशाओं में है / जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं / यह पहला विभंगज्ञान है। दूसरा विभंगज्ञान इस प्रकार है जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से पूर्व दिशा को, पश्चिम दिशा को, दक्षिण दिशा को, उत्तर दिशा को और ऊर्ध्वदिशा को सौधर्मकल्प तक देखता है / उस समय उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय (सम्पूर्ण) ज्ञानदर्शन प्राप्त हुआ है / मैं पांचों दिशाओं में हो लोक को देख रहा हूँ। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि लोक एक ही दिशा में है। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह दूसरा विभंगज्ञान है। तीसरा विभंगज्ञान इस प्रकार है जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए. अदत्त-ग्रहण करते हुए, मैथुन-सेवन करते हुए, परिग्रह करते हुए और रात्रि-भोजन करते हुए देखता है, किन्तु उन कार्यों के द्वारा किये जाते हुए कर्मवन्ध को नहीं देखता, तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुना है। मैं देख रहा हूँ कि जीव क्रिया से ही प्रावृत है, कर्म से नहीं। जो श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव क्रिया से प्रावृत नहीं है, बे मिथ्या कहते हैं / यह तीसरा विभंगज्ञान है। चौथा विभंगज्ञान इस प्रकार है जव तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंग ज्ञान से देवों को बाह्य (शरीर के अवगाढ क्षेत्र से बाहर) और प्राभ्यन्तर (शरीर के अवगाढ क्षेत्र के भीतर) पुद्गलों को ग्रहण कर विक्रिया करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, इनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर, भिन्न-भिन्न काल और विभिन्न देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं / यह देख कर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है / मैं देख रहा हूँ कि जीव पुद्गलों से ही बना हुआ है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव शरीर-पुद्गलों से बना हुया नहीं है, जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं / यह चौथा विभंगज्ञान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org