________________ 572 ] [ स्थानाङ्गसूत्र पांचवां विभंगज्ञान इस प्रकार है जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न विभंग ज्ञान से देवों को बाह्य और प्राभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण किए विना उत्तर विक्रिया करते हुए देखता है कि ये देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल उत्पन्न कर, उनका स्फोट कर, भिन्न-भिन्न काल और देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं / यह देखकर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है- 'मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है / मैं देख रहा हूँ कि जीव पुद्गलों से बना हुआ नहीं है / कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव-शरीर पुद्गलों से बना हुआ है / जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। यह पाँचवाँ विभंगज्ञान है। छठा विभंगज्ञान इस प्रकार है जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से देवों को बाह्य आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके और ग्रहण किये विना विक्रिया करते हुए देखता है। वे देव पुद्गलों का स्पर्श कर, उनमें हल-चल पैदा कर, उनका स्फोट कर भिन्न-भिन्न काल और देश में विविध प्रकार की विक्रिया करते हैं / यह देख कर उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है-मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है। मैं देख रहा है कि जीव रूपी ही है। कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव अरूपी है / जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं / यह छठा विभंगज्ञान है। सातवाँ विभंगज्ञान इस प्रकार है जब तथारूप श्रमण-माहन को विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह उस उत्पन्न हुए विभंग ज्ञान से सूक्ष्म (मन्द) वायु के स्पर्श से पुद्गल काय को कम्पित होते हुए, विशेष रूप से कम्पित होते हुए, चलित होते हुए, क्षुब्ध होते हुए, स्पन्दित होते हुए, दूसरे पदार्थों का स्पर्श करते हुए, दूसरे पदार्थों को प्रेरित करते हुए, और नाना प्रकार के पर्यायों में परिणत होते हुए देखता है / तब उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न होता है—'मुझे सातिशय ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है / मैं देख रखा हूँ कि ये सभी जीव ही जोव हैं, कितनेक श्रमण-माहन ऐसा कहते हैं कि जीव भी हैं और अजीव भी हैं / जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। उस विभंगज्ञानी को पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक, इन चार जीव-निकायों का सम्यक् ज्ञान नहीं होता / वह इन चार जीव-निकायों पर मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है / यह सातवाँ विभंगज्ञान है। विवेचन–मति श्रत और अवधिज्ञान मिथ्यादर्शन के संसर्ग के कारण विपर्यय रूप भी होते हैं / अभिप्राय यह कि मिथ्यादृष्टि के उक्त तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। जिनमें से आदि के दो ज्ञानों को कुमति और कुश्रु त कहा जाता है और अवधिज्ञान को कुअवधि या विभंगज्ञान कहते हैं / मति और श्रुत ये दो ज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी संसारी जीवों में हीनाधिक मात्रा में पाये जाते हैं / किन्तु अवधिज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को ही होता है। अवधिज्ञान के दो भेद होते हैं-भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्तक / भवप्रत्यय अवधि देव और नारकी जीवों को जन्मजात होता है। किन्तु क्षयोपशमनिमित्तक अवधि मनुष्य और तियंचों को तपस्या, परिणाम-विशुद्धि आदि विशेष कारण मिलने पर अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। यद्यपि देव और नारकी जीवों का अवधिज्ञान भी तदावरण कर्म के क्षयोपशम से ही जनित है, किन्तु वहाँ अन्य बाह्य कारण के अभाव में भी मात्र भव के निमित्त से क्षयोपशम होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org