________________ सप्तम स्थान ] [583 2. संग्रह--केवल अभेद को ग्रहण करने वाला नय। 3. व्यवहार-केवल भेद को ग्रहण करने वाला नय। 4. ऋजुसूत्र-वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को वस्तु रूप में स्वीकार करने वाला नय / 5. शब्द-भिन्न-भिन्न लिंग, वचन, कारक आदि के भेद से वस्तु में भेद मानने वाला नय / 6. समभिरूढ-लिंगादि का भेद न होने पर भी पर्यायवाची शब्दों के भेद से वस्तु को भिन्न मानने वाला नय। 7. एवम्भूत-वर्तमान क्रिया-परिणत वस्तु को ही वस्तु मानने वाला नय (38) / स्वरमंडल-सूत्र ३६-सत्त सरा पण्णत्ता, त जहासंग्रहणी-गाथा सज्जे रिसभे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे / धेवते चेव णेसादे, सरा सत्त वियाहिता // 1 // स्वर सात कहे गये हैं। जैसे१. षड्ज, 2. ऋषभ, 3. गान्धार, 4. मध्यम, 5. पंचम, 6. धैवत, 7. निषाद / विवेचन----१. षड्ज–नासिका, कण्ठ, उरस्, तालु, जिह्वा, और दन्त इन छह स्थानों से उत्पन्न होने वाला स्वर-'स' / 2. ऋषभ-नाभि से उठकर कण्ठ और शिर से समाहत होकर ऋषम (बैल) के समान गर्जना करने वाला स्वर -रे'। 3. गान्धार-नाभि से समुत्थित एवं कण्ठ-शीर्ष से समाहत तथा नाना प्रकार की गन्धों को धारण करने वाला स्वर-'ग'। 4. मध्यम नाभि से उठकर वक्ष और हृदय से समाहत होकर पुन: नाभि को प्राप्त ___महानाद 'म' / शरीर के मध्य भाग से उत्पन्न होने के कारण यह मध्यम स्वर कहा जाता है। 5. पंचम-नाभि, वक्ष, हृदय, कण्ठ और शिर इन पाँच स्थानों से उत्पन्न होने वाला स्वर-'प'। 6. धैवत-पूर्वोक्ति सभी स्वरों का अनुसन्धान करने वाला स्वर-'ध' / 7. निषाद-सभी स्वरों को समाहित करने वाला स्वर-'नी' / ४०-एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरढाणा पण्णता त जहा सज्जंतु अग्गजिन्भाए, उरेण रिसभं सरं। कंठुग्गलेण गंधारं मज्झजिम्भाए मज्झिमं // 1 // णासाए पंचमं बूया, वंतो?ण य घेवतं / मुदाणेण य सावं, सरढाणा वियाहिता // 2 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org