________________ षष्ठ स्थान ] [ 543 आर्य-सूत्र ३४-छविहा जाइ-प्रारिया मगुस्सा पण्णत्ता, तं जहासंग्रहणी-गाथा अंबटा य कलंदा य, वेदेहा वेदिगादिया। हरिता चुचुणा चेक, छप्पेता इन्भजातियो॥१॥ जाति से आर्यपुरुष छह प्रकार के कहे गये हैं। जैसे 1. अंबष्ठ, 2. कलन्द, 3. वैदेह, 4. वैदिक, 5. हरित, 6. चुचुण, ये छहों इभ्यजाति के मनुष्य हैं (34) / __३५–छविहा कुलारिया मणुस्सा पण्णत्ता, तं जहा-उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाता, कोरवा। कुल से प्रार्य मनुष्य छह प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. उग्र, 2. भोज, 3. राजन्य, 4. इक्ष्वाकु, 5. ज्ञात, 6. कौरव / विवेचन—मात-पक्ष को जाति कहते हैं। जिन का मातृपक्ष निर्दोष और पवित्र है, वे पुरुष जात्यार्य कहलाते हैं / टीकाकार ने इनका कोई विवरण नहीं दिया है / अमर-कोष के अनुसार 'अम्बष्ठ' का अर्थ 'अम्वे तिष्ठति-अम्बष्ठः' तथा 'अम्बष्ठी वैश्या-द्विजन्मनोः' अर्थात् वैश्य माता और ब्राह्मण पिता से उत्पन्न हुई सन्तान को अम्बष्ठ कहते हैं। तथा ब्राह्मणी माता और वैश्य पिता से उत्पन्न हुई सन्तान वैदेह कहलाती है (बाह्मण्यां क्षत्रियात्सूतस्तस्यां वैदेहको विश:)। चुचुण का कोषों में कोई उल्लेख नहीं हैं, यदि इसके स्थान पर 'कुकुण' पद की कल्पना की जावे तो ये कोंकण देशवासी जाति है, जिनमें मातृपक्ष को आज भी प्रधानता है। कलंद और हरित जाति भी मातपक्षप्रधान रही है (35) / संग्रहणी गाथा में इन छहों को 'इभ्यजातीय' कहा है। इभ का अर्थ हाथी होता है / टीकाकार के अनुसार जिसके पास धन-राशि इतनी ऊंची हो कि सूड को ऊंची किया हुआ हाथी भी न दिख सके, उसे इभ्य कहा जाता था।' इभ्य की इस परिभाषा से इतना तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्रजातीय माता की वैश्य से उत्पन्न सन्तान से इन इभ्य जातियों के नाम पड़े हैं / क्योंकि व्यापार करने वाले वैश्य सदा से ही धन-सम्पन्न रहे हैं। दूसरे सूत्र में कुछ पार्यों के छह भेद बताये गये हैं, उनका विवरण इस प्रकार है 1. उग्र-भगवान् ऋषभदेव ने आरक्षक या कोट्टपाल के रूप में जिनकी नियुक्ति की थी, वे उग्र नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी सन्तान भी उग्रवंशीय कहलाने लगी। 2. भोज-गुरुस्थानीय क्षत्रियों के वंशज / 3. राजन्य-मित्रस्थानीय क्षत्रियों के वशज / 4. इक्ष्वाकु-भगवान् ऋषभदेव के वंशज / 1. इभमर्हन्तीतीभ्याः / यद्-द्रव्यस्तूपान्तरित उच्छितकन्दलिकादण्डो हस्ती न दृश्यते ते इभ्या इति श्रुतिः / (स्थानाङ्ग सूत्रपत्र 340 A) इभ्य आढ्यो धनी' इत्यभरः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org