________________ 542] [ स्थानाङ्गसूत्र 2. न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान-न्यग्रोध का अर्थ वट वृक्ष है / जिस शरीर में नाभि से नीचे के अंग छोटे और ऊपर के अंग दीर्घ या विशाल हों। 3. सादिसंस्थान—जिस शरीर में नाभि के नीचे के भाग प्रमाणोपेत और ऊपर के भाग ह्रस्व हों। 4. कुब्जसंस्थान--जिस शरीर में पीठ या छाती पर कूबड़ निकली हो। 5. वामनसंस्थान—जिस शरीर में हाथ, पैर, शिर और ग्रीवा प्रमाणोपेत हो, किन्तु शेष अवयव प्रमाणोपेत न हों, किन्तु शरीर बौना हो / 6. हुण्डकसंस्थान-जिस शरीर में कोई अवयव प्रमाणयुक्त न हो (31) / विवेचन—दि० शास्त्रों में संहनन और संस्थान के भेदों के स्वरूप में कुछ भिन्नता है, जिसे तत्त्वार्थराजवात्तिक के आठवें अध्याय से जानना चाहिए / अनात्मवत्-आत्मवत्-सूत्र ३२-छट्ठाणा प्रणत्तवप्रो अहिताए असुभाए अखमाए प्रणीसेसाए प्रणाणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा—परियाए, परियाले, सुते, तवे, लामे, पूयासक्कारे / अनात्मवान् के लिए छह स्थान अहित, अशुभ, अक्षम, अग्निःश्रेयस, अनानुगामिकता (अशुभानुबन्ध) के लिए होते हैं / जैसे 1. पर्याय-अवस्था या दीक्षा में बड़ा होना, 2. परिवार, 3. श्रुत, 4. तप, 5. लाभ, 6 पुजा-सत्कार (32) / ३३-छट्ठाणा प्रत्तवतो हिताए (सुभाए खमाए णोसेसाए) प्राणुगामियत्ताए भवंति, त जहा-परियाए, परियाले, (सुते, तवे, लाभे), पूयासक्कारे / यात्मवान् के लिए छह स्थान हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और प्रानुगामिकता (शुभानुबन्ध) के लिए होते हैं / जैसे 1. पर्याय, 2. परिवार, 3. श्रु त, 4. तप, 5. लाभ, 6. पूजा-सत्कार (33) / विवेचन--जिस व्यक्ति को अपनी आत्मा का भान हो गया है और जिसका अहंकार-ममकार दूर हो गया है, वह आत्मवान् है / इसके विपरीत जिसे अपनी प्रात्मा का भान नहीं हुआ है और जो अहंकार-ममकार से ग्रस्त है, वह अनात्मवान् कहलाता है / अनात्मवान् व्यक्ति के लिए दीक्षा-पर्याय या अधिक अवस्था, शिष्य या कुटुम्ब परिवार, श्रुत, तप और पूजा-सत्कार की प्राप्ति से अहंकार और ममकार भाव उत्तरोत्तर बढ़ता है, उससे वह दूसरों को हीन अपने को महान् समझने लगता है / इस कारण से सब उत्तम योग भी उसके लिए पतन के कारण हो जाते हैं / किन्तु प्रात्मवान् के लिए सूत्र-प्रतिपादित छहों स्थान उत्थान और आत्म-विकास के कारण होते हैं, क्योंकि ज्यों-त्यों उसमें तप-श्रुत आदि की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों वह अधिक विनम्र एवं उदार होता जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org