________________ षष्ठ स्थान [ 546 ५७–जहा धरणस्स तहा सवेसि दाहिणिल्लाणं जाव घोसस्स / जिस प्रकार धरण की छह अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, उसी प्रकार भवनपति इन्द्र वेणुदेव, हरिकान्त, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब और घोष इन सभी दक्षिणेन्द्रों की छह-छह अग्रमहिषियाँ जाननी चाहिए (57) / ५८--जहा भूताणंदस्स तहा सवेसि उत्तरिल्लाणं जाव महाघोसस्स / जिस प्रकार भूतानन्द की छह अग्रमहिषियाँ कहीं गई हैं, उसी प्रकार भवनपति इन्द्र वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोप इन सभी उत्तरेन्द्रों की छह-छह अग्रमहिषियाँ जाननी चाहिए (58) / सामानिक-सत्र ५६–धरणस्स णं णागकुमारिदस्स णागकुमाररण्णो छस्सामाणियसाहसीनो पण्णत्तायो। नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के छह हजार सामानिक देव कहे गये हैं (56) / ६०–एवं भूताणंदम्सवि जाव महाघोसस्स / इसी प्रकार नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र भूतानन्द, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमानव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष के भी भूतानन्द के समान छह-छह हजार सामानिक देव जानना चाहिए (60) / मति-सूत्र ६१-छविहा ओग्गहमती पण्णता, त जहा–खिप्पमोगिण्हति, बहुमोगिण्हति, बहुविधमोगिण्हति, धुवमोगिण्हति, प्रणिस्सियमोगिण्हति, असंदिद्धमोगिण्हति / अवग्रहमति के छह भेद कहे गये हैं / जैसे१. क्षिप्र-अवग्रहमति–शंख आदि के शब्द को शीघ्र ग्रहण करने वाली मति / 2. बहु-अवग्रहमति–शंख आदि अनेक प्रकार के शब्दों आदि को ग्रहण करने वाली मति / 3. बहुविध-अवग्रहमति-बहुत प्रकार के बाजों के अनेक प्रकार के शब्दों आदि को ग्रहण ___करने वाली मति / / 4. ध्र व-अवग्रहमति--एक वार ग्रहण की हुई वस्तु पुनः ग्रहण करने पर उसी प्रकार से जानने वाली मति / 5. अनिश्रित-अवग्रह-मति—किसी लिंग-चिह्न का आश्रय लिए विना जानने वाली मति / 6. असंदिग्ध-अवग्रहमति-सन्देह-रहित सामान्य रूप से ग्रहण करने वाली मति (61) / ६२–छव्विहा ईहामती पण्णत्ता, त जहा-खिप्पमोहति, बहुमोहति, (बहुविधमीहति, धुवमोहति, प्रणिस्सियमीहति), असंदिद्धमोहति / / ___ ईहामति (अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विशेष जानने की इच्छा) छह प्रकार की कही गई हैं / जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org