________________ षष्ठ स्थान ] [561 2. छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति-नवदीक्षित साधु का शैक्षकाल पूर्ण होने पर पंच महाव्रत धारण कराने रूप मर्यादा / 3. निविशमानकल्पस्थिति-परिहारविशुद्धिसंयम को स्वीकार करने वाले की मर्यादा / 4. निविष्टकल्पस्थिति-परिहारविशुद्धिसंयम-साधना को पूर्ण करने वाले की मर्यादा। 5. जिनकल्पस्थिति–तीर्थकर जिन के समान सर्वथा निग्रंथ निर्वस्त्र वेषधारण कर, ____ एकाकी अखण्ड तपस्या की मर्यादा / 6. स्थविरकल्पस्थिति साधु-संघ के भीतर रहने की मर्यादा (103) / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में कल्पस्थिति अर्थात् संयम-साधना के प्रकारों का वर्णन किया गया है / भगवान् पार्श्वनाथ के समय में संयम के चार प्रकार थे-१. सामायिक, 2. परिहारविशुद्धिक 3. सूक्ष्मसाम्पराय और 4. यथाख्यात / किन्तु काल की विषमता से प्रेरित होकर भगवान महावीर ने छेदोपस्थापनीय संयम की व्यवस्था कर चार के स्थान पर पाँच प्रकार के संयम की व्यवस्था की। परिहारविशुद्धिक' यह संयम की आराधना का एक विशेष प्रकार है। इसके दो विभाग हैं-निविंशमानकल्प और निविष्टकल्प / परिहारविशुद्धि संयम की साधना में चार साधुओं की साधनावस्था को निविशमान कल्प कहा जाता है। ये साधु ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतु में जघन्य रूप से क्रमशः एक उपवास, दो उपवास और तीन उपवास लगातार करते हैं, मध्यम रूप से क्रमशः दो, तीन और चार उपवास करते हैं और उत्कृष्ट रूप से क्रमशः तीन, चार और पाँच उपवास करते हैं / पारणा में भी अभिग्रह के साथ प्रायविल की तपस्या करते हैं / ये सभी जघन्यतः नौ पर्यों के और उत्कृष्टत: दश पूर्वो के ज्ञाता होते हैं / जो उक्त निविशमान कल्पस्थिति की साधना पूरी कर लेते हैं तब शेष चार साधु, जो अब तक उनकी परिचर्या करते थे-वे उक्त प्रकार से संयम की साधना में संलग्न होकर तपस्या करते हैं और ये चारों साधु उनकी परिचर्या करते हैं / इन चारों साधुओं को निविष्टमानकल्प वाला कहा जाता है। परिहारविशद्धि संयम की साधना में नौ साधु एक साथ अवस्थित होते हैं। उनमें से चार साधुनों का पहला वर्ग तपस्या करता है और दूसरे वर्ग के चार साधु उनकी परिचर्या करते हैं। एक साधु प्राचार्य होता है / जब दोनों वर्ग के साधु उक्त तपस्या कर चुकते हैं, तब आचार्य तपस्या में अवस्थित होते हैं और उक्त दोनों ही वर्ग के आठों साधु उनकी परिचर्या करते हैं। जिनकल्पस्थिति-विशेष साधना के लिए जो संघ से अनुज्ञा लेकर एकाकी विहार करते हुए संयम की साधना करते हैं, उनकी प्राचार-मर्यादा को जिनकल्पस्थिति कहा जाता है। वे अकेले मौनपूर्वक विहार करते हैं। अपने ऊपर आने वाले बड़े से बड़े उपसर्गों को शान्तिपूर्वक दृढता के साथ सहन करते हैं / वज्रर्षभनाराच संहनन के धारक होते हैं। उनके पैरों में यदि कांटा लग जाय, तो वे अपने हाथ से उसे नहीं निकालते हैं, इसी प्रकार आँखों में धूलि आदि चली जाय, तो उसे भी वे नहीं निकालते हैं। यदि कोई दूसरा व्यक्ति निकाले, तो वे मौन एवं मध्यस्थ रहते हैं। स्थविरकल्पस्थिति-जो हीन संहनन के धारक और घोरपरीषह उपसर्गादि के सहन करने में असमर्थ होते हैं, वे संघ में रहते हुए ही संयम की साधना करते हैं, उन्हें स्थविरकल्पी कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org