________________ 524] [ स्थानाङ्गसूत्र वेदनीय कर्म का बन्ध होता है, शेष सात कर्मों का बन्ध नहीं होता / यतः ग्यारहवें गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अत: उस जीव के सात कर्मों में बन्ध का विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अन्य जीवों के विषय में जानना चाहिए। कर्म-प्रदेशों के छेदन या बिरह को प्रदेश-छेदन कहते हैं। जैसे कोई सम्यक्त्वी जीव अनन्तानुबन्धी कषायों का विसंयोजन अर्थात् अप्रत्याख्यानादिरूप में परिवर्तन कर देता है, जितने समय तक यह विसंयोजना रहेगी-उतने समय तक अनन्तानुबन्धी कषाय के प्रदेशों का विरह कहलायगा और उस जीव के सम्यक्त्व से च्युत होते ही पुनः अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध प्रारम्भ होते ही संयोजन होने लगेगा, उतना मध्यवर्तीकाल अनन्तानुबन्धी का विरहकाल कहलायेगा। ___इसी प्रकार द्विधा-छेदन का अर्थ-मोहकर्म को प्राप्त कर्मप्रदेशों का दर्शनमोह और चारित्रमोह में विभाजित होना आदि लेना चाहिए। ___ काल के निरन्तर चलने वाले प्रवाह को समय-प्रानन्तर्य कहते हैं / सामान्य रूप से निरन्तर चलने वाले संसार-प्रवाह को सामान्य प्रानन्तर्य जानना चाहिए। अनन्त-सूत्र 217 --पंचविधे अणतए पण्णत्ते, त जहाणामाणंतए, ठवणाणतए, दव्वाणंतए, गणणाणतए पदेसाणंतए। अहवा-पंचविहे अणतए पण्णते, त जहा–एगंतोऽणतए, दुहोणतन, देसविस्थाराणंतए, सध्ववित्थाराणतए, सासयाणंतए / अनन्तक पांच प्रकार का कहा गया है / जैसे१. नाम-अनन्तक—किसी व्यक्ति का 'अनन्त' यह नाम रख देना / जैसे पागमभाषा में वस्त्र का नाम अनन्तक है। 2. स्थापना-अनन्तक--स्थापना निक्षेप के द्वारा किसी वस्तु में अनन्त की स्थापना कर देना स्थापना-अनन्तक है। 3. द्रव्य-अनन्तक—जीव, पुद्गल परमाणु आदि द्रव्य-अनन्तक हैं। 4, गणना-अनन्तक—जिस गणना का अन्त न हो, ऐसी संख्याविशेष को गणना-अनन्तक कहते हैं। 5. प्रदेश-अनन्तक--जिसके प्रदेश अनन्त हों, जैसे आकाश के प्रदेश अनन्त हैं, यह प्रदेश अनन्तक है। अथवा अनन्तक पांच प्रकार का कहा गया है / जैसे१. एकत:-अनन्तक-याकाश के एक श्रेणीगत अायत (लम्बाई में) अनन्त प्रदेश / 2. द्विधा-अनन्तक-यायत और विस्तृत प्रतरक्षेत्र-गत अनन्त प्रदेश / 3. देशविस्तार-अनन्तक—पूर्वादि किसी एक दिशासम्बन्धी देशविस्तारगत अनन्त प्रदेश / 4. सर्व विस्तार-अनन्तक–सम्पूर्ण आकाश के अनन्त प्रदेश / 5. शाश्वत-अनन्तक—त्रिकालवर्ती अनादि-अनन्त जीवादि द्रव्य या कालद्रव्य के अनन्त समय (217) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org