________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश [ 361 विवेचनप्राशी का अर्थ दाढ़ है। जाति अर्थात् जन्म से ही जिनकी दाढ़ों में विष होता है, उन्हें जाति-आशीविष कहा जाता है। यद्यपि वृश्चिक (विच्छु) की पूछ में विष होता है, किन्तु जन्म-जात विषवाला होने से उसकी भी गणना जाति-पाशीविषों के साथ की गई है। प्रश्न-भगवन् ! जाति-पाशीविष वृश्चिक के विष में कितना सामर्थ्य होता है ? उत्तर-गौतम ! जाति-पाशीविष वृश्चिक अपने विष के प्रभाव से अर्ध भरतक्षेत्र-प्रमाण (लगभग दो सौ तिरेसठ योजन वाले) शरीर को विष-परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है। किन्तु न कभी उसने अपने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में कभी करेगा। प्रश्न-भगवन् ! जाति-आशीविष मेंढक के विष में कितना सामर्थ्य है ? उत्तर-गौतम ! जाति-प्राशीविष मेंढक अपने विष के प्रभाव से भरत क्षेत्र प्रमाण शरीर को विष-परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है। किन्तु न कभी उसने अपने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में करेगा। प्रश्न-भगवन् ! जाति-पाशीविष सर्प के विष का कितना सामर्थ्य है ? उत्तर-गौतम ! जाति-प्राशी विष सर्प अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप प्रमाण (एक लाख योजन वाले) शरीर को विष-परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य मात्र है। किन्तु न कभी उसने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में कभी करेगा। प्रश्न-भगवन् ! जाति-प्राशीविष मनुष्य के विष का कितना सामर्थ्य है ? उत्तर-गौतम ! जाति-ग्राशीविष मनुष्य अपने विष के प्रभाव से समय क्षेत्र-प्रमाण (पैंतालीस लाख योजन वाले) शरीर को विष-परिणत और विदलित करने के लिए समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है, किन्तु न कभी उसने इस सामर्थ्य का उपयोग भूतकाल में किया है, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में कभी करेगा। विवेचन-प्रकृत सूत्र में जिन चार प्रकार के प्राशीविष जीवों के विष के सामर्थ्य का निरूपण किया गया है, वे सभी जीव आगम-प्ररूपित उत्कृष्ट शरीरावगाहना वाले जानने चाहिए। मध्यम या जघन्य अवगाहना वालों के विष में इतना सामर्थ्य नहीं होता। व्याधि-चिकित्सा-सूत्र ५१५-चविहे वाही पण्णत्ते, त जहा–वातिए, पित्तिए, सिभिए, सण्णिवातिए / व्याधियाँ चार प्रकार की कही गई हैं। जैसे१. वातिक–वायु के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि / 2. पैत्तिक-पित्त के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि / 3. श्लैष्मिक-कफ के विकार से उत्पन्न होने वाली व्याधि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org