________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश ] |445 इसो प्रकार कषाय भी चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. खरावर्त-समान--क्रोध कषाय 2. उन्नतावर्त-समान--मान कषाय / 3. गूढावर्त-समान--माया कषाय 4. आमिषावर्त-समान--लोभ कषाय / खरावर्त-समान क्रोध में वर्तमान जीव काल करता है तो नारकों में उत्पन्न होता है / उन्नतावर्त-समान मान में वर्तमान जीव काल करता है तो नारकों में उत्पन्न होता है। गढावर्त-समान माया में वर्तमान जीव काल करता है तो नारकों में उत्पन्न होता है। आमिषावर्त-समान लोभ में वर्तमान जीव काल करता है तो नारकों में उत्पन्न होता है / नक्षत्र-सूत्र 654 –अणुराहाणक्खत्ते च उत्तारे पण्णत्ते / अनुराधा नक्षत्र चार तारे वाला कहा गया है (654) / ६५५–पुव्वासाढा (णक्खत्ते चउत्तारे पण्णत्ते)। पूर्वाषाढा नक्षत्र चार तारे वाला कहा गया है (655) / ६५६–एवं चेव उत्तरासाढा (णक्खत्ते चउत्तारे पण्णते)। इसी प्रकार उत्तराषाढा नक्षत्र चार तारे वाला कहा गया है (656) / पापकर्म-सूत्र ६५७-जीवाणं चउदाणणिवत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिस् वा चिणंति वा चिणिस्संति वा-रइयणिवत्तिते, तिरिक्खजोगियणिवत्तिते, मणुस्सणिवत्तिते, देवणिवत्तिते। जीवों ने चार कारणों से निर्वत्तित (उपाजित) कर्म-पद्गलों को पाप कर्म रूप से भूतकाल में संचित किया है, वर्तमानकाल में संचित कर रहे हैं और भविष्यकाल में संचित करेंगे / जैसे--- . 1. नैरयिक निर्वर्तित कर्मपुद्गल, 2. तिर्यग्योनिक निर्वतित कर्मपुद्गल, 3. मनुष्य निर्वर्तित कर्मपुद्गल, 4. देवनिर्वर्तित कर्मपुद्गल (657) / ६५८-एवं-उवचिणिसु वा उवचिति वा उचिणिस्संति वा / एवं-चिण-उवचिण-बंध-उदोर-वेय तह णिज्जरा चे / इसी प्रकार जीवों ने चतुःस्थान निर्वतित कर्म पुद्गलों का उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण भूतकाल में किया है, वर्तमान में कर रहे हैं और भविष्यकाल में करेंगे (658) / पुद्गल-सूत्र ६५६---चउपदेसिया खंधा अणता पण्णत्ता। चार प्रदेश वाले पुद्गलस्कन्ध अनन्त हैं (656) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org