________________ 468] [स्थानाङ्गसूत्र आचार पाँच प्रकार का कहा गया है / जैसे-- 1. ज्ञानाचार, 2. दर्शनाचार, 3. चारित्राचार, 4. तपाचार, 5. वीर्याचार (147) / आचारप्रकल्प-सूत्र १४८-पंचविहे प्रायारकप्पे पण्णत्ते, तं जहा-मासिए उग्यातिए, मासिए अणुग्धातिए, चउमासिए उम्घातिए, चउमासिए अणग्यातिए, प्रारोवणा। आचारप्रकल्प (निशीथ सूत्रोक्त प्रायश्चित्त) पाँच प्रकार का कहा गया है / जैसे१. मासिक उद्-घातिक-लघु मासरूप प्रायश्चित्त / 2. मासिक अनुद्घातिक—गुरु मासरूप प्रायश्चित्त / 3. चातुर्मासिक उद्-घातिक-लघु चार मासरूप प्रायश्चित्त / 4. चातुर्मासिक अनुद-घातिक-गुरु चार मासरूप प्रायश्चित्त / 5. आरोपणा-एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के सेवन से प्राप्त प्रायश्चित का आरोपण करना (148) / विवेचन-मासिक तपश्चर्या वाले प्रायश्चित्त में कुछ दिन कम करने को मासिक उद्-घातिक या लघुमास प्रायश्चित्त कहते हैं / तथा मासिक तपश्चर्या वाले प्रायश्चित्त में से कुछ भी अंश कम नहीं करने को मासिक अनुद्-घातिक या गुरुमास प्रायश्चित्त कहते हैं / यही अर्थ चातुर्मासिक उद्घातिक और अनुद्-घातिक का भी जानना चाहिए। प्रारोपणा का विवेचन अागे के सूत्र में किया जा रहा है। आरोपणा-सूत्र १४६-पारोवणा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-पट्टविया, ठविया, कसिणा, अकसिणा, हाडहडा / प्रारोपणा पाँच प्रकार की कही गई है / जैसे१. प्रस्थापिता प्रारोपणा–प्रायश्चित्त में प्राप्त अनेक तपों में से किसी एक तप को प्रारम्भ करना। 2. स्थापिता अारोपणा---प्रायश्चित्त रूप से प्राप्त तपों को भविष्य के लिए स्थापित किये __ रखना, गुरुजनों की वैयावृत्य आदि किसी कारण से प्रारम्भ न करना / 3. कृत्स्ना ग्रारोपणा-पूरे छह मास की तपस्या का प्रायश्चित्त देना, क्योंकि वर्तमान जिन__शासन में उत्कृष्ट तपस्या की सीमा छह मास की मानी गई है। 'पारोपणा--एक दोष के प्रायश्चित्त को करते हए दसरे दोष को करने पर. तथा उसके प्रायश्चित्त को करते हुए तीसरे दोष के करने पर यदि प्रायश्चित्त-तपस्या का काल छह मास से अधिक होता है, तो उसे छह मास में ही आरोपण कर दिया जाता है / अतः पूरा प्रायश्चित्त नहीं कर सकने के कारण उसे अकृत्स्ना प्रारोपणा कहते हैं / 5. हाडहडा-पारोपणा-जो प्रायश्चित्त प्राप्त हो, उसे शीघ्र ही देने को हाडहडा आरोपणा कहते हैं (146) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org