________________ 512] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. कुशील---ब्रह्मचर्य रूप शील का अखंड पालन करते हुए भी शील के अठारह हजार भेदों में से किसी शील में दोष लगाने वाले निर्ग्रन्थ। 4. निर्ग्रन्थ-मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय करने वाले वीतराग निर्ग्रन्थ, ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानवर्ती साधु / 5. स्नातक–चार घातिकर्मों का क्षय करके तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन (184) / १८५-पुलाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहमपुलाए णामं पंचमे / पुलाक निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. ज्ञानपुलाक-ज्ञान के स्खलित, मिलित आदि अतिचारों का सेवन करने वाला। 2. दर्शनपुलाक-शंका, कांक्षा आदि सम्यक्त्व के अतिचारों का सेवन करने वाला। 3. चारित्रपुलाक-मूल गुणों और उत्तर-गुणों में दोष लगाने वाला / 4. लिंगपुलाक-शास्त्रोक्त उपकरणों से अधिक उपकरण रखने वाला, जैनलिंग से भिन्न लिंग या वेष को कभी-कभी धारण करने वाला। 5. यथासूक्ष्मपुलाक---प्रमादवश अकल्पनीय वस्तु को ग्रहण करने का मन में विचार करने वाला (185) / १८६–बउसे पंचविधे पण्णते, तं जहा-प्राभोगबउसे, अणाभोगबउसे, संवुडबउसे, असंवुड. बउसे, अहासुहमबउसे णाम पंचमें / बकुश निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. प्राभोगबकुश-जान-बूझ कर शरीर को विभूषित करने वाला। 2. अनाभोगबकुश-अनजान में शरीर को विभूषित करने वाला। 3. संवृतबकुश-लुक-छिप कर शरीर को विभूषित करने वाला। 4. असंवृतबकुश-प्रकट रूप से शरीर को विभूषित करने वाला। 5. यथासूक्ष्मबकुश-प्रकट या अप्रकट रूप से शरीर आदि की सूक्ष्म विभूषा करने वाला (186) / १८७--कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहाणाणकुसोले, दसणकुसोले, चरित्तकुसीले, लिंगकुसोले, श्रहासुहमकुसीले णाम पंचमे / कुशील निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे१. ज्ञानकुशील-काल, विनय, उपधान आदि ज्ञानाचार को नहीं पालने वाला। 2. दर्शनकुशील-नि:कांक्षित, निःशंकित आदि दर्शनाचार को नहीं पालने वाला। 3. चारित्रकुशील-कौतुक, भूतिकर्म, निमित्त, मंत्र आदि का प्रयोग करने वाला / 4. लिंगकुशील-साधुलिंग से आजीविका करने वाला। 5. यथासूक्ष्मकुशील-दूसरे के द्वारा तपस्वी, ज्ञानी आदि कहे जाने पर हर्ष को प्राप्त होने . वाला (187) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org