________________ 516 ] [ स्थानाङ्गसूत्र करना ब्रह्मशौच कहलाता है। कहा भी है-~'ब्रह्मचारी सदा शुचिः' / अर्थात् ब्रह्मचारी मनुष्य सदा पवित्र है / इस प्रकार मंत्रशौच और ब्रह्मशौच को भावशौच जानना चाहिए। छग्रस्थ-केवली-सूत्र १९५-पंच ठाणाई छउमत्थे सवमावेणं ण जाणति ण पासति, त जहा-धम्मस्थिकार्य, अधम्मस्थिकायं, आगासस्थिकायं, जीवं प्रसरीरपडिबद्ध, परमाणुपोग्गलं / एयाणि चेव उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणति पासति, त जहाधम्मस्थिकायं, (अधम्मस्थिकायं, पागासस्थिकायं जीवं प्रसरीरपडिबद्ध), परमाणुपोग्गलं / छद्मस्थ मनुष्य पाँच स्थानों को सर्वथा न जानता है और न देखता है१. धर्मास्तिकाय को, 2. अधर्मास्तिकाय को, 3. आकाशास्तिकाय को, 4. शरीर-रहित जीव को 5. और पुद्गल परमाणु को। किन्तु जिनको सम्पूर्णज्ञान और दर्शन उत्पन्न हो गया है, ऐसे अर्हन्त, जिन केवली इन पाँचों को ही सर्वभाव से जानते-देखते हैं। जैसे 1. धर्मस्तिकाय को, 2. अधर्मस्तिकाय को, 3. आकाशास्तिकाय को, 4. शरीर-रहित जीव को और 5. पुद्गल परमाणु को (165) / विवेचन-जिनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म विद्यमान हैं, ऐसे बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थ जीव अरूपी चार अस्तिकायों को समस्त पर्यायों सहित पूर्ण रूप से-साक्षात् नहीं जान सकता, और न देख सकता है। चलते-फिरते शरीर-युक्त जीव तो दिखाई देते हैं, किन्तु शरीर-रहित जीव कभी नहीं दिखाई देता है / पुद्गल यद्यपि रूपी है, पर एक परमाणु रूप पुद्गल सुक्ष्म होने से छद्मस्थ के ज्ञान का अगोचर कहा गया है। महानरक-सूत्र १९६-अधेलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालया पण्णत्ता, त जहा-काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अप्पतिट्ठाणे। अधोलोक में पाँच अनुत्तर महातिमहान् महानरक कहे गये हैं। जैसे१. काल, 2. महाकाल, 3. रौरुक, 4. महारौरुक, और 5. अप्रतिष्ठान ये पाँचों महानरक सातवीं नरकभूमि में हैं (166) / महाविमान-सूत्र १६७-उड्ढलोगे णं पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाविमाणा पण्णता, त जहा-विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते, सव्वदसिद्ध / ऊर्ध्वलोक में पाँच अनुत्तर महातिमहान् महाविमान कहे गये हैं ! जैसे१. विजय, 2. वैजयन्त, 3. जयन्त, 4. अपराजित और 5. सर्वार्थसिद्ध / ये पाँचों महाविमान वैमानिक लोक के सर्व-उपरिम भाग में हैं / (197) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org