________________ 464] [ स्थानाङ्गसूत्र दत्ति-सूत्र १३०-पंचमासियं णं भिक्खुपडिम पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पंति पंच दत्तीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणगस्स। पंचमासिकी भिक्षप्रतिमा को धारण करने वाले अनगार को भोजन की पाँच दत्तियाँ और पानक की पांच दत्तियाँ ग्रहण करना कल्पती हैं (130) / उबघात-विशोधि-सूत्र १३१-पंचविधे उवघाते पण्णत्ते, तं जहा उगमोवधाते, उपायणोवधाते, एसणोवधाते, परिकम्मोवघाते, परिहरणोवघाते / उपघात (अशुद्धि-दोष) पाँच प्रकार का कहा गया है / जैसे१. उद्गमोपघात-प्राधाकर्मादि उद्गमदोषों से होने वाला चारित्र का घात / 2. उत्पादनोपघात-धात्री आदि उत्पादन दोषों से होने वाला चारित्र का घात / 3. एषणोपघात--शंकित आदि एषणा के दोषों से होने वाला चारित्र का घात / 4. परिकर्मोपघात-वस्त्र-पात्रादि के निमित्त से होने वाला चारित्र का घात / 5. परिहरणोपघात-अकल्प्य उपकरणों के उपभोग से होने वाला चारित्र का घात (131) / १३२-पंचविहा विसोही पण्णता, तं जहा-उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही, एसणविसोही, परिकम्मविसोही, परिहरणविसोही। विशोधि पाँच प्रकार की कही गई है / जैसे१. उद्गमविशोधि-प्राधाकर्मादि उद्गम-जनित दोषों की विशुद्धि / 2. उत्पादनविशोधि-धात्री आदि उत्पादन-जनित दोषों की विशुद्धि / 3. एषणाविशोधि-शंकित प्रादि एषणा-जनित दोषों की विशुद्धि / 4. परिकर्मविशोधि -वस्त्र-पात्रादि परिकर्म-जनित दोषों की विशुद्धि / 5. परिहरणविशोधि-अकल्प्य उपकरणों के उपभोग-जनित दोषों को विशुद्धि (132) / दुर्लभ-सुलभ-बोधि-सूत्र १३३-पंहि ठाणेहि जीवा दुल्लभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा–अरहताणं अवणं वदमाणे, प्ररहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवष्णं वदमाणे, पायरियउबझायाणं अवरुणं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वदमाणे, विवक्क-तव-बंभचेराणं देवाणं अवण्णं वदमाणे / पाँच कारणों से जीव दुर्लभबोधि करने वाले (जिनधर्म की प्राप्ति को दुर्लभ बनाने वाले) मोहनीय प्रादि कर्मों का उपार्जन करते हैं / जैसे 1. अर्हन्तों का अवर्णवाद (असद्-दोषोद्भावन—निन्दा) करता हुआ। 2. अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता हुआ। 3. आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद करता हुमा / 4. चतुर्वर्ण (चतुर्विध) संघ का अवर्णवाद करता हुआ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org