________________ 466 ] [स्थानाङ्गसूत्र आर्जवस्थान-सूत्र ५१--पंच प्रज्जवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा—साधुअज्जवं, साधुमद्दवं, साधुलाघवं, साधुखंती, साधुमुत्ती। पांच आर्जव स्थान कहे गये हैं / जैसे-- 1. साधु-पार्जव मायाचार का सर्वथा निग्रह करना / 2. साध-मार्दव-अभिमान का सर्वथा निग्रह करना / 3. साधु-लाघव-गौरव का सर्वथा निग्रह करना / 4. साधु-क्षान्ति-क्रोध का सर्वथा निग्रह करना / 5. साधु-मुक्ति-लोभ का सर्वथा निग्रह करना / विवेचन-राग-द्वष की वक्रता से रहित सामायिक संयमी साधु के कर्म या भाव को आर्जव अर्थात् संवर कहते हैं / संवर अर्थात्, अशुभ कर्मों के प्रास्रव को रोकने के पांच कारणों का प्रकृत सूत्र में निरूपण किया गया है। इनमें से लोभकषाय के निग्रह से लाघव और मुक्ति ये दो संवर होते हैं। शेष तीन संवर तीन कषायों के निग्रह से उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक प्रार्जवस्थान के साथ साधु-पद लगाने का अर्थ है कि यदि ये पांचों कारण सम्यग्दर्शन पूर्वक होते हैं, तो वे संवर के कारण हैं, अन्यथा नहीं / 'साधु' शब्द यहाँ सम्यक् या समीचीन अर्थ का वाचक समझना चाहिए (51) / ज्योतिष्क-सूत्र ५२-पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता, तं जहा-चंदा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, तारापो। ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. चन्द्र, 2. सूर्य, 3. ग्रह, 4. नक्षत्र, 5. तारा (52) / देव-सूत्र ५३--पंचविहा देवा पण्णता, तं जहा--भवियदव्वदेवा, परदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा। देव पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. भव्य-द्रव्य-देव-भविष्य में होने वाला देव / . 2. नर-देव-राजा, महाराजा यावत् चक्रवर्ती / 3. धर्म-देव-प्राचार्य, उपाध्याय आदि / 4, देवाधिदेव-अहंन्त तीर्थंकर / / 5. भावदेव-देव-पर्याय में वर्तमान देव (53) / परिचारणा-सूत्र ५४-पंचविहा परियारणा पण्णता, तं जहा-कायपरियारणा, फासपरियारणा, रूवपरियारणा, सद्दपरियारणा, मणपरियारणा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org