________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश [ 427 चारित्र-सूत्र ५६५-चत्तारि कुभा पण्णता, त जहा-भिण्णे, जज्जरिए, परिस्साई, अपरिस्साई / एवामेव चउबिहे चरित्ते पण्णत्ते, तं जहा-भिण्णे, (जज्जरिए, परिस्साई), अपरिस्साई / कुम्भ चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे१. भिन्न (फूटा) कुम्भ, 2. जर्जरित (पुराना) कुम्भ, 3. परिस्रावी (झरने वाला) कुम्भ, 4. अपरिस्रावी (नहीं झरने वाला) कुम्भ / इसी प्रकार चारित्र भी चार प्रकार का कहा गया है। जैसे--- 1. भिन्न चारित्र-मूल प्रायश्चित्त के योग्य / 2. जर्जरित चारित्र-छेद प्रायश्चित्त के योग्य / 3. परिस्रावी चारित्र--सूक्ष्म अतिचार वाला / 4. अपरिस्रावी चारित्र-निरतिचार-सर्वथा निदोष चारित्र (565) / मधु-विष-सूत्र ५६६-चत्तारि कुभा पण्णत्ता, तं जहा—महुकुमे गाममेगे महुपिहाणे, महु कु णाममंगे विसपिहाणे, विसकु णाममेगे महुपिहाणे, विसकुभे णाममेगे विसपिहाणे। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा–महकु णाममेगे महुपिहाणे, महुकुमे णाममेग विसपिहाणे, विसकु णाममेगे महुपिहाणे, विसकु णाममेग विसपिहाणे / संग्रहणी-गाथाएं हिययमपावमकलुसं, जोहाऽवि य महरभासिणी णिच्चं / जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुमे मधुपिहाणे // 1 // हिययमपावमकलुसं, जोहाऽवि य कडयभासिणो णिच्चं / जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुभे विसपिहाणे // 2 // जं हिययं कलुसमयं, जोहाऽवि य मधुरभासिणी णिच्चं / जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुभे महुपिहाणे // 3 // जं हिययं कलुसमयं, जोहाऽवि य कडुय भासिणी णिच्चं / जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुभे विसपिहाणे // 4 // कुम्भ चार प्रकार के कहे गये हैं / जैसे-- 1. मधु कुम्भ , मधुपिधान-कोई कुम्भ मधु से भरा होता है और उसका पिधान (ढक्कन) भी मधु का ही होता है / 2. मधु कुम्भ, विषपिधान--कोई कुम्भ मधु से भरा होता है, किन्तु उसका ढक्कन विष का होता है। 3. विष कुम्भ-मधुपिधान-कोई कुम्भ विष से भरा होता है, किन्तु उसका ढक्कन मधु का होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org