________________ 430 ] [ स्थानाङ्गसूत्र कर्म-सूत्र ६०२--चउविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-सुभे णाममेगे सुभे, सुभे गाममेगे असुभे, असुभे णाममेगे सुभे, असुभे णाममेगे असुभे / कर्म चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. शुभ और शुभ-कोई पुण्यकर्म शुभप्रकृति वाला होता है और शुभानुबंधी भी होता है / 2. शुभ और अशुभ-कोई पुण्यकर्म शुभप्रकृति वाला किन्तु अशुभानुबंधी होता है। 3. अशुभ और शुभ-कोई पापकर्म अशुभ प्रकृति वाला, किन्तु शुभानुबन्धी होता है / 4. अशुभ और अशुभ-कोई पापकर्म अशुभ प्रकृतिवाला और अशुभानुबन्धी होता विवेचन-कर्मों के मूल भेद पाठ हैं, उनमें चार घातिकर्म तो अशुभ या पापरूप ही कहे गये हैं / शेष चार अघातिकर्मों के दो विभाग हैं। उनमें सातावेदनीय, शुभ आयु, उच्च गोत्र और पंचेन्द्रिय जाति, उत्तम संस्थान, स्थिर, सुभग, यश कीत्ति आदि नाम कर्म की 68 प्रकृतियां पुण्य रूप और शेष पापरूप कही गई हैं। प्रकृत में शुभ और पुण्य को, तथा अशुभ और पाप को एकार्थ जानना चाहिए। सूत्र में जो चार भंग कहे गये हैं, उनका खुलासा इस प्रकार है१. कोई पुण्यकर्म वर्तमान में भी उत्तम फल देता है और शुभानुबन्धी होने से आगे भी सुख देने वाला होता है / जैसे भरत चक्रवर्ती आदि का पुण्यकर्म / 2. कोई पुण्यकर्म वर्तमान में तो उत्तम फल देता है, किन्तु पापानुन्बधी होने से आगे दुःख देने वाला होता है / जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि का पुण्यकर्म / 3. कोई पापकर्म वर्तमान में तो दुःख देता है. किन्तु आगे सुखानुबन्धी होता है। जैसे दुखित ___ अकामनिर्जरा करनेवाले जीवों का नवीन उपाजित पुण्य कर्म / 4. कोई पापकर्म वर्तमान में भी दुःख देता है और पापानुबन्धी होने से आगे भी दुःख देता __ है / जैसे-मछली मारने वाले धीवरादि का पापकर्म / ६०३–चविहे कम्मे पण्णते, तं जहा--सुभे णाममेगे सुभविवागे, सुभे णाममेगे असुभविवागे, प्रसुभे णाममेगे सुभविवागे, असुभे णाममेगे असुभविवागे। पुनः कर्म चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. शुभ और शुभविपाक-कोई कर्म शुभ होता है और उसका विपाक भी शुभ होता है / 2. शुभ और अशुभविपाक--कोई कर्म शुभ होता है, किन्तु उसका विपाक अशुभ होता है। 3. अशुभ और शुभविपाक-कोई कर्म अशुभ होता है, किन्तु उसका विपाक शुभ होता है। 4. अशुभ और अशुभविपाक-कोई कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ ही ___ होता है (603) / ६०४--चउम्विहे कम्मे पण्णते, तं जहा--पगडीकम्मे, ठितीकम्मे, अणुभावकम्मे, पदेसकम्मे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org