________________ चतुर्थ स्थान-चतुर्थ उद्देश] [ 417 ५७४–चउचिहा पवज्जा पण्णत्ता, तं जहा-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, बुआवइत्ता, परिपुयावइत्ता। पुन: प्रव्रज्या चार प्रकार की कही गई है / जैसे१. तोदयित्वा प्रव्रज्या-कष्ट देकर दी जाने वाली दीक्षा / 2. प्लावयित्वा प्रव्रज्या--अन्यत्र ले जाकर दी जाने वाली दीक्षा / 3. वाचयित्वा प्रवज्या-बातचीत करके दी जाने वाली दीक्षा। 4. परिप्लुतयित्वा प्रवज्या-स्निग्ध, मिष्ट भोजन कराकर या मिष्ट आहार मिलने का प्रलोभन देकर दो जाने वालो दीक्षा (574) / विवेचन संस्कृत टीकाकार के सम्मुख 'तुयावइत्ता' के स्थान पर 'उयावइत्ता' भी पाठ उपस्थित था, उसका संस्कृत रूप ‘प्रोजयित्वा' होता है। तदनुसार 'शारीरिक या विद्यादि-सम्बन्धी बल दिखाकर दी जाने वाली दीक्षा' ऐसा अर्थ किया है। इसी प्रकार 'पुयावइत्ता' के संस्कृत रूप प्लावयित्वा के स्थान पर अथवा कहकर 'पूतयित्वा' संस्कृत रूप देकर यह अर्थ किया है कि जो दीक्षा किसी के ऊपर लगे दूषण को दूर कर दी जाती है, वह पूतयित्वा-प्रव्रज्या है। यह अर्थ भी संगत है और आज भी ऐसी दीक्षाएं होती हुई देखी जाती हैं। तीसरी 'बुनावइत्ता' 'वाचयित्वा' प्रव्रज्या के स्थान पर टीकाकार के सम्मुख 'मोयाव इत्ता' भी पाठ रहा है। इसका संस्कृतरूप 'भोचयित्वा' होता है, तदनुसार यह अर्थ होता है कि किसी ऋण-ग्रस्त व्यक्ति को ऋण से मुक्त कराके, या अन्य प्रकार की आपत्ति से पीड़ित व्यक्ति को उससे छुड़ाकर जो दीक्षा दी जाती है, वह 'मोचयित्वा प्रवज्या' कहलाती है। यह अर्थ भी संगत है। इस तीसरे प्रकार की प्रवज्या में टीकाकार ने गौतम स्वामी के द्वारा वार्तालाप कर प्रबोधित कृषक का उल्लेख किया है / तदनन्तर 'वचनं वा' आदि लिखकर यह भी प्रकट किया है कि दो व्यक्तियों के वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) में जो हार जायगा, उसे जीतने वाले के मत में प्रवजित होना पड़ेगा। इस प्रकार की प्रतिज्ञा से गृहीत प्रव्रज्या को 'बुप्राव इत्ता' वचनं वा प्रतिज्ञावचनं कारयित्वा प्रव्रज्या' कहा है। ५७५--चउविहा पन्बज्जा पण्णता, त जहा—णडखइया, भडखइया, सोहखइया, सियालखइया। पुनः प्रव्रज्या चार प्रकार की गई है / जैसे-- 1. नटखादिता-संवेग-वैराग्य से रहित धर्मकथा कह कर भोजनादि प्राप्त करने के लिए ली गई प्रवज्या। 2. भटखादिता-सुभट के समान बल-प्रदर्शन कर भोजनादि प्राप्त कराने वाली प्रव्रज्या / 3. सिंहखादिता-सिंह के समान दूसरों को भयभीत कर भोजनादि प्राप्त कराने वाली प्रव्रज्या / 4. शृगालखादिता-सियाल के समान दीन-वृत्ति से भोजनादि प्राप्त कराने वाली प्रव्रज्या (575) / ५.७६-चउविहा किसी पण्णत्ता, त जहा--वाविया, परिवाविया, णिदिता, परिणिदिता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org