________________ चतुर्थ स्थान--तृतीय उद्देश ] [ 376 ४८५-एवं तिरियलोगे वि (णं चत्तारि बिसरीरा पण्णता, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, वणस्सइकाइया, उराला तसा पाणा)। तिर्यक् लोक में चार द्विशरीरी कहे गये हैं / जैसे१. पृथ्वीकायिक, 2. अप्कायिक, 6. वनस्पतिकायिक, 4. उदार त्रस प्राणी (485) / विवेचन--छह कायिक जीवों में से उक्त तीनों सूत्रों में अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़ दिया है, क्योंकि वे मर कर मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं और इसीलिए वे दूसरे भव में सिद्ध नहीं हो सकते / छहों कायों में जो सूक्ष्म जीव हैं, वे भी मर कर अगले भव में मनुष्य न हो सकने के कारण मुक्त नहीं हो सकते। त्रस पद के पूर्व जो "उदार' विशेषण दिया गया है, उससे यह सुचित किया गया है कि विकलेन्द्रिय त्रस प्राणी भी अगले भव में सिद्ध नहीं हो सकते / अतः यह अर्थ फलित होता है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय त्रस जीवों को 'उदार त्रस प्राणी' पद से ग्रहण करना चाहिए। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि सूत्रोक्त सभी प्राणी अगले भव में मनुष्य होकर सिद्ध नहीं होंगे। किन्तु उनमें जो आसन्न या अतिनिकट भव्य जीव हैं, उनमें भी जिसको एक ही नवीन भव धारण करके सिद्ध होना है, उनका ही प्रकृत सूत्रों में वर्णन किया गया है और उनकी अपेक्षा से एक वर्तमान शरीर और एक अगले भव का मनुष्य शरीर ऐसे दो शरीर उक्त प्राणियों के बतलाये गये हैं। सत्त्द-सत्र ४८६-चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते। पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-- 1. ह्रीसत्त्व-~-किसी भी परिस्थिति में लज्जावश कायर न होने वाला पुरुष / 2. ह्रीमन:सत्त्व शरीर में रोमांच, कम्पनादि होने पर भी मन में दृढ़ता रखने वाला पुरुष / 3. चलसत्त्व-परीषहादि आने पर विचलित हो जाने वाला पुरुष / 4. स्थिरसत्त्व-उग्र से उग्र परीषह और उपसर्ग आने पर भी स्थिर रहने वाला पुरुष (486) / विवेचन-ह्रीसत्त्व और हीमनःसत्त्व वाले पुरुषों में यह अन्तर है कि ह्रीसत्त्व व्यक्ति तो विकट परिस्थितियों में भय-ग्रस्त होने पर भी लज्जावश शरीर और मन दोनों में ही भय के चिह्न प्रकट नहीं होने देता। किन्तु जो ह्रीमनःसत्त्व व्यक्ति होता है वह मन में तो सत्त्व (हिम्मत) को बनाये रखता है, किन्तु उसके शरीर में भय के चिह्न रोमांच-कम्प आदि प्रकट हो जाते हैं। प्रतिमा-सूत्र ४८७–चत्तारि सेज्जपडिमानो पण्णत्तायो / चार शय्या-प्रतिमाएं (शय्या विषयक अभिग्रह या प्रतिज्ञाएं) कही गई हैं (487) / ४८८-~-चत्तारि वस्थपडिमानो पण्णत्तानो। चार वस्त्र-प्रतिमाएं (वस्त्र-विषयक-प्रतिज्ञाएं) कही गई हैं (488) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org