________________ 388] [ स्थानाङ्गसूत्र 3. निषेध-साधक-अनुपलब्धि हेतु / 4. विधि-साधक-अनुपलब्धि हेतु / इनमें से प्रथम के 6 भेद, द्वितीय के 7 भेद, तीसरे के 7 भेद और चौथे के 5 भेद न्यायशास्त्र में बताये गये हैं। संख्यान-सूत्र ५०५-चउब्धिहे संखाणे पण्णत्त, तजहा-परिकम्म, बवहारे, रज्जू, रासी। संख्यान (गणित) चार प्रकार का कहा गया है / जैसे१. परिकर्म-संख्यान-जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि गणित / 2. व्यवहार-संख्यान-लघुतम, महत्तम, भिन्न, मिश्र आदि गणित / 3. रज्ज-संख्यान-राजरूप क्षेत्रगणित / 4. राशि-संख्यान-त्रैराशिक, पंचराशिक आदि गणित (505) / अन्धकार-उद्योत-सत्र ५०६-पहोलोंगे णं चत्तारि अंधगारं करेति, त जहा–णरगा, णेरड्या, पावाई कम्माइं, असुभा पोग्गला। अधोलोक में चार पदार्थ अन्धकार करते हैं। जैसे१. नरक, 2. नैरयिक, 3. पापकर्म, 4. अशुभ पुद्गल (506) / ५०७–तिरियलोग णं चत्तारि उज्जोतं करेति, तजहा-चंदा, सूरा, मणी, जोती। तिर्यक् लोक में चार पदार्थ उद्योत करते हैं / जैसे१. चन्द्र, 2. सूर्य, 3. मणि, 4. ज्योति (अग्नि) (507) / ५०८-उड्डलोग गं चत्तारि उज्जोतं करेति, त जहा--देवा, देवीप्रो, विमाणा, प्राभरणा / ऊर्ध्वलोक में चार पदार्थ उद्योत करते हैं। जैसे१. देव, 2. देवियां, 3. विमान 4. देव-देवियों के प्राभरण (आभूषण) (508) / // चतुर्थ स्थान का तृतीय उद्देश समाप्त / / 1. देखिए प्रमाणनयतत्त्वालोक, परिच्छेद 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org