________________ द्वितीय स्थान प्रथम उद्देश ] [36 हैं--कालिक और उत्कालिक / दिन और रात के प्रथम और अन्तिम पहर में पढ़े जाने वाले श्र त को कालिक श्रु त कहते हैं / जैसे--उत्तराध्ययनादि / अकाल के सिवाय सभी पहरों में पढ़े जाने वाले श्रत को उत्कालिक श्रु त कहते हैं / जैसे दशवैकालिक आदि / धर्मपद १०७--दुविहे धम्मे पण्णते, तं जहा-सुयधम्मे चव, चरित्तधम्मे चेव / १०८---सुयधम्मे दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा--सुत्तसुयधम्मे चेव, अस्थसुयधम्मे चेव / १०६-चरित्तधम्मे दविहे पण्णत्ते, तं जहा--अगारचरित्तधम्मे चव, अणगारचरित्तधम्मे च व / धर्म दो प्रकार का कहा गया है--श्रुतधर्म (द्वादशाङ्गथ त का अभ्यास करना) और चारित्रधर्म (सम्यक्त्व, व्रत, समिति आदि का आचरण) (107) / श्रतधर्म दो प्रकार का कहा गया है-- सूत्र व तधर्म (मूल सूत्रों का अध्ययन करना) और अर्थ-श्र तधर्म (सूत्रों के अर्थ का अध्ययन करना (108) / चारित्रधर्म दो प्रकार का कहा गया है--अगारचारित्र धर्म (श्रावकों का अणुव्रत आदि रूप धर्म) और अनगारचारित्र धर्म (साधुओं का महाव्रत आदि रूप धर्म) (106) / संयम-पद ११०-दुविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-सरागसंजमे चेव, वीतरागसंजमे चव / १११-सरागसंजमे दुविहे पण्णते, त जहा-सुहमसंपरायसरागसंजमे चेब, बादरसंपरायसरागसंजमे चव / ११२--सुहमसंपरायसरागसंजमे दुबिहे पण्णत्ते, त जहा-पढमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे चेव, अपढमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे चेव / अहवा-चरिमसमयसुहुमसंपरायसरागसंजमे चेव, अचरिमसमयसुहमसंपरायसरागसंजमे चैव / अहवा - सुहमसंपरायसरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, त जहासंकिलेसमाणए चे व, विसुज्झमाणए चेव / ११३–बादरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहापढमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चेव, अपढमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चेव / अहवा--- चरिमसमयबादरसंपरायसरागसंजमे चैव, अचरिमसमयवादरसंपरायसरागसंजमे चव। अहवाबादरसंपरायसरागसंजमे दुविहे पण्णते, त जहा-पडिवातिए चेव, अपडिवातिए चेव / संयम दो प्रकार का कहा गया है--सरागसंयम और वीतरागसंयम (110) / सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है--सूक्ष्मसाम्पराय सरागसंयम और बादरसाम्पराय सरागसंयम (111) / सूक्ष्म साम्पराय सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है--प्रथमसमय-सूक्ष्मसाम्पराय सरागसंयम और अप्रथमसमय-सूक्ष्मसाम्परायसरागसंयम / अथवा--चरमसमय सूक्ष्मसाम्पराय सरागसंयम और अचरम न / अथवा--सूक्ष्मसाम्पराय सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है-- संक्लिश्यमान सूक्ष्मसाम्पराय सरागसंयम (ग्यारहवें गुणस्थान से गिर कर दशवें गुणस्थानवर्ती साधु का संयम संक्लिश्यमान होता है) और विशुद्धयमान सूक्ष्म साम्परायसरागसंयम (दशवें गुणस्थान से ऊपर चढ़ने वाले का संयम विशुद्धयमान होता है) (112) / बादरसाम्परायसरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है--प्रथमसमय बादरसाम्परायसरागसंयम और अप्रथमसमय-बादर-साम्पराय सरागसंयम। अथवा--चरमसमय-बादरसाम्परायसरागसंयम और अचरमसमयबादरसाम्पराय सरागसंयम / अथवा--बादरसाम्पराय सरागसंयम दो प्रकार का कहा गया है--प्रतिपाती बादर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org